हिंदी काव्य साहित्य के विभिन्न कालों का नामकरण एवं काल विभाजन
विभिन्न कालों में और इन कालों की भी अन्य छोटी-छोटी शाखाएं व काव्य-धाराएँ
दृष्टिपथ में आती हैं इन्हें निम्नलिखित ढंग से तालिकाबद्ध किया गया है –
हिंदी काव्य साहित्य के विभिन्न कालों से संबंधित शाखाएं - (आचार्य शुक्ल के अनुसार)
पहले आप इसे एक तस्वीर से समझें, विस्तार से जानने के लिए तस्वीर के नीचे जाएँ -
आदिकाल (993ई. – 1318 ई.) : हिन्दी काव्य के विकासक्रम का काल विभाजन
विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। इस संबंध में विद्वानों ने
भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किए हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् आलोचक आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी काव्य-साहित्य का प्रारम्भ सन् 993 ई ० से सन् 1398 ई ०
तक माना है किन्तु इनके पश्चात् अनेक विद्वानों ने इनके इस मत का नए प्राप्त
तथ्यों के आधार पर खण्डन किया। आचार्य शुक्ल इस अवधि में वीरगाथाओं की रचना
प्रवृत्ति को प्रधान मानकर चले थे, अतः उन्होंने आदिकाल
को वीरगाथाकाल की संज्ञा दी। अधिकांश विद्वान् हिन्दी काव्य का प्रथम कवि सरहपा को
मानते हैं, जिनकी रचना काल सन् 769 ई० से प्रारम्भ होता
है। विद्यापति को भी आदिकालीन कवियों में माना जाता है, जिनका रचना-काल सन् 1379 ई० से सन् 1418 ई० तक है। इस दृष्टि से आदिकाल की
अन्तिम सीमा सन् 1418 ई० निर्धारित की जा सकती है, परन्तु
यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि भक्तिकाल में जिन प्रवृत्तियों का विकास
हुआ, उनकी भूमिका विद्यापति से पहले ही पूर्ण हो चुकी
थी। इस दृष्टि से विद्यापति को भक्तिकाल में रखना समीचीन प्रतीत होता है। आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल की समाप्ति सन् 1318 ई० में मानी है। अब यदि विद्यापति
को आदिकाल में सम्मिलित किया जाए तो इसकी अन्तिम सीमा सन् 1418 ई० तक जाती है । समीक्षात्मक
दृष्टिकोण से आदिकाल को लगभग सभी साहित्यकारों ने किसी-न-किसी रूप में स्वीकार
किया है। इसके इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों के माध्यम से अच्छी तरह
समझा जा सकता है।
(1) राजनैतिक स्थिति (2) धार्मिक स्थिति (3) सामाजिक स्थिति
(4) सांस्कृतिक परिस्थितियां (5) साहित्य पक्ष (सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, नाथ साहित्य, रासो साहित्य, लौकिक साहित्य)
भक्तिकाल (1318 ई० से 1643
ई०) : हिन्दी साहित्य के इतिहास में
भक्तिकाल का अपना विशेष महत्त्व है। सामान्यतया जिस काल में मुख्य रूप से भागवत
धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ और जिसके परिणामस्वरूप भक्ति-आन्दोलन का सूत्रपात हुआ, उसे
भक्तिकाल कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल का काल-निर्धारण सन् 1398
ई० से 1643 ई० तक किया है। जनता में क्षीण होते उत्साह के समय ईश्वर भक्ति ही
एकमात्र सहारा रह गई थी। इसके इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों (राजनैतिक स्थिति, धार्मिक स्थिति, सामाजिक
स्थिति) के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
भक्तिकाल की दो धाराएँ
हैं -
(1) निर्गुण भक्ति धारा (1. ज्ञानमार्गी शाखा
2. प्रेममार्गी शाखा )
(2) सगुण भक्ति धारा (1. रामभक्ति धारा 2. कृष्णभक्ति धारा )
रीतिवाचक (1643 ई० से 1843 ई०) : रीतिकाल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल का
समय सन् 1643 ई० से 1843 ई० तक माना है। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी
युग की प्रवृत्तियाँ अचानक न तो जन्म लेती हैं और न ही समाप्त हो जाती हैं, अतः
रीतिकाल का काल-निर्धारण सत्रहवीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक का
मानना समीचीन प्रतीत होता है। रीतिकाल में सामान्यतया श्रृंगारप्रधान
लक्षण-ग्रन्थों की रचना हुई। 'रीति' शब्द काव्यशास्त्रीय परम्परा का अर्थवाहक है। इस काल को रीतिकाल की संज्ञा
इसलिए दी गई, क्योंकि इस समयावधि के कवियों ने
श्रृंगारिक छन्द तो रचे ही, साथ ही वे श्रृंगार रस की
सामग्री के लक्षणों के उदाहरण होने के साथ-साथ रीतिबद्ध भी थे। रीतिकाल में
भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर अधिक बल दिया गया इसके
इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों (राजनैतिक स्थिति, सांस्कृतिक परिस्थितियां, सामाजिक स्थिति) के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
आचार्य शुक्ल के अनुसार इस
युग के संपूर्ण साहित्य को दो वर्गों में बांटा गया है - (1) रीतिबद्ध काव्य
(2) रीतिमुक्त काव्य
आचार्य विश्वनाथ मिश्र ने रीतिकाल को तीन भागों में बांटा है – (1) रीतिबद्ध काव्य (2) रीतिसिद्ध काव्य
(3) रीतिमुक्त काव्य
आधुनिककाल (1868 ईo से अब
तक) : हिन्दी
काव्य के आधुनिक युग का प्रारम्भ अंग्रेजों की साम्राज्यवादी शासन प्रणाली के नवीन
अनुभव से हुआ था। इस काल में बाहर से वातावरण शान्तिमय प्रतीत होता था, लेकिन आन्तरिक रूप से स्थिति भिन्न थी। धन का अविरल प्रवाह विदेश की ओर
अग्रसर था। यह सबकुछ होने के बावजूद यदि अंग्रेजों के सम्पर्क की कोई विशेषता
भूमिका कही जा सकती है तो यह कि अंग्रेजों के सम्पर्क के फलस्वरूप ही भारत में
वैज्ञानिक बोध का प्रसार हुआ। आधुनिक युग जीवन की यथार्थता को ग्रहण करने का युग
रहा। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ साहित्य में सामान्य मानव की प्रतिष्ठा का
युग रहा है। आधुनिककाल का उपविभाजन निम्नवत है -
(1) पुनर्जागरणकाल (भारतेंदु युग) (1868 से 1900)
(2) जागरण-सुधारकाल (द्विवेदी युग) (1900 से 1922)
(3) छायावादकाल (छायावादी युग) (1922 से 1938),
(4) छायावादोत्तरकाल (क) प्रगतिवादी & प्रयोगवादी युग (1938से
1943), (ख) नयी कविता
का युग (1943 से अब तक)
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