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Saturday, September 17, 2022

हिंदी काव्य साहित्य का इतिहास (हिंदी साहित्य में कितने युग हैं) (History of Hindi literature in hindi)


हिंदी काव्य साहित्य के विभिन्न कालों का नामकरण एवं काल विभाजन विभिन्न कालों में और इन कालों की भी अन्य छोटी-छोटी शाखाएं व काव्य-धाराएँ दृष्टिपथ में आती हैं इन्हें निम्नलिखित ढंग से तालिकाबद्ध किया गया है –

हिंदी काव्य साहित्य के विभिन्न कालों से संबंधित शाखाएं - (आचार्य शुक्ल के अनुसार)

पहले आप इसे एक तस्वीर से समझेंविस्तार से जानने के लिए तस्वीर के नीचे जाएँ -


आदिकाल (993ई. – 1318 ई.) : हिन्दी काव्य के विकासक्रम का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। इस संबंध में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किए हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी काव्य-साहित्य का प्रारम्भ सन् 993 ई ० से सन् 1398 ई ० तक माना है किन्तु इनके पश्चात् अनेक विद्वानों ने इनके इस मत का नए प्राप्त तथ्यों के आधार पर खण्डन किया। आचार्य शुक्ल इस अवधि में वीरगाथाओं की रचना प्रवृत्ति को प्रधान मानकर चले थेअतः उन्होंने आदिकाल को वीरगाथाकाल की संज्ञा दी। अधिकांश विद्वान् हिन्दी काव्य का प्रथम कवि सरहपा को मानते हैंजिनकी रचना काल सन् 769 ई० से प्रारम्भ होता है। विद्यापति को भी आदिकालीन कवियों में माना जाता हैजिनका रचना-काल सन् 1379 ई० से सन् 1418 ई० तक है। इस दृष्टि से आदिकाल की अन्तिम सीमा सन् 1418 ई० निर्धारित की जा सकती हैपरन्तु यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि भक्तिकाल में जिन प्रवृत्तियों का विकास हुआउनकी भूमिका विद्यापति से पहले ही पूर्ण हो चुकी थी। इस दृष्टि से विद्यापति को भक्तिकाल में रखना समीचीन प्रतीत होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल की समाप्ति सन् 1318 ई० में मानी है। अब यदि विद्यापति को आदिकाल में सम्मिलित किया जाए तो इसकी अन्तिम सीमा सन् 1418 ई० तक जाती है । समीक्षात्मक दृष्टिकोण से आदिकाल को लगभग सभी साहित्यकारों ने किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है। इसके इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

(1)  राजनैतिक स्थिति  (2) धार्मिक स्थिति  (3) सामाजिक स्थिति (4) सांस्कृतिक परिस्थितियां (5) साहित्य पक्ष (सिद्ध साहित्यजैन साहित्यनाथ साहित्यरासो साहित्यलौकिक साहित्य)

भक्तिकाल (1318 ई० से 1643 ई०) : हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का अपना विशेष महत्त्व है। सामान्यतया जिस काल में मुख्य रूप से भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ और जिसके परिणामस्वरूप भक्ति-आन्दोलन का सूत्रपात हुआउसे भक्तिकाल कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल का काल-निर्धारण सन् 1398 ई० से 1643 ई० तक किया है। जनता में क्षीण होते उत्साह के समय ईश्वर भक्ति ही एकमात्र सहारा रह गई थी। इसके इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों (राजनैतिक स्थितिधार्मिक स्थितिसामाजिक स्थिति) के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

भक्तिकाल की दो धाराएँ हैं -

(1)  निर्गुण भक्ति धारा (1.  ज्ञानमार्गी शाखा 2. प्रेममार्गी शाखा )

(2)  सगुण भक्ति धारा (1. रामभक्ति धारा 2. कृष्णभक्ति धारा )             

रीतिवाचक (1643 ई० से 1843 ई०) : रीतिकाल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल का समय सन् 1643 ई० से 1843 ई० तक माना है। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी युग की प्रवृत्तियाँ अचानक न तो जन्म लेती हैं और न ही समाप्त हो जाती हैंअतः रीतिकाल का काल-निर्धारण सत्रहवीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक का मानना समीचीन प्रतीत होता है। रीतिकाल में सामान्यतया श्रृंगारप्रधान लक्षण-ग्रन्थों की रचना हुई। 'रीतिशब्द काव्यशास्त्रीय परम्परा का अर्थवाहक है। इस काल को रीतिकाल की संज्ञा इसलिए दी गईक्योंकि इस समयावधि के कवियों ने श्रृंगारिक छन्द तो रचे हीसाथ ही वे श्रृंगार रस की सामग्री के लक्षणों के उदाहरण होने के साथ-साथ रीतिबद्ध भी थे। रीतिकाल में भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर अधिक बल दिया गया इसके इतिहास को तत्कालीन कुछ निम्न परिस्थितियों (राजनैतिक स्थितिसांस्कृतिक परिस्थितियांसामाजिक स्थिति) के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

     आचार्य शुक्ल के अनुसार इस युग के संपूर्ण साहित्य को दो वर्गों में बांटा गया है - (1)  रीतिबद्ध काव्य (2) रीतिमुक्त काव्य

आचार्य विश्वनाथ मिश्र ने रीतिकाल को तीन भागों में बांटा है – (1)  रीतिबद्ध काव्य (2) रीतिसिद्ध काव्य (3) रीतिमुक्त काव्य

आधुनिककाल (1868 ईसे अब तक) : हिन्दी काव्य के आधुनिक युग का प्रारम्भ अंग्रेजों की साम्राज्यवादी शासन प्रणाली के नवीन अनुभव से हुआ था। इस काल में बाहर से वातावरण शान्तिमय प्रतीत होता थालेकिन आन्तरिक रूप से स्थिति भिन्न थी। धन का अविरल प्रवाह विदेश की ओर अग्रसर था। यह सबकुछ होने के बावजूद यदि अंग्रेजों के सम्पर्क की कोई विशेषता भूमिका कही जा सकती है तो यह कि अंग्रेजों के सम्पर्क के फलस्वरूप ही भारत में वैज्ञानिक बोध का प्रसार हुआ। आधुनिक युग जीवन की यथार्थता को ग्रहण करने का युग रहा। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ साहित्य में सामान्य मानव की प्रतिष्ठा का युग रहा है। आधुनिककाल का उपविभाजन निम्नवत है -

(1)  पुनर्जागरणकाल (भारतेंदु युग) (1868  से 1900) 

(2) जागरण-सुधारकाल (द्विवेदी युग) (1900 से 1922) 

(3) छायावादकाल (छायावादी युग) (1922 से 1938)

(4) छायावादोत्तरकाल (क) प्रगतिवादी & प्रयोगवादी युग (1938से 1943)(ख) नयी कविता का युग (1943 से अब तक)


Monday, September 12, 2022

काव्य के भेद (Types of kavya)

 

            काव्य के दो भेद होते हैं – 1. श्रव्य काव्य (सुना जानेवाला या पढ़ा जानेवाला काव्य) 2. दृश्य काव्य ( दृश्य आदि के द्वारा रसास्वादन किया जानेवाला काव्य) । नाटकएकांकी आदि दृश्य काव्य के अंतर्गत आते हैं। दृश्य काव्य का अभिनय रंगमंच पर किया जाता है और उसे देखने से उसका पूरा रसास्वादन होता है। श्रव्य काव्य के काव्य के दो भेद होते हैं- श्रव्य काव्य के दो भेद होते हैं- प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य प्रबन्ध काव्य में कोई धारावाहिक कहानी होती है अर्थात किसी कथायुक्त काव्य को प्रबन्ध काव्य कहा जाता है। इसमें किसी घटना या क्रिया का काव्यात्मक वर्णन होता है। जयशंकरप्रसाद द्वारा रचित कामायनी इसका अच्छा उदाहरण है। मुक्तक काव्यकाव्य का वह रूप है जिसमें पद तो कई हो सकते हैं लेकिन उन पदों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं होता। सभी स्वयं में ही पूर्ण होते हैं। उदाहरणार्थ - महाकवि बिहारी की बिहारी सतसई 

प्रबन्ध काव्य के दो भेद होते हैं- (1) महाकाव्य  (2) खण्डकाव्य

महाकाव्य (Epic)

           महाकाव्य प्रायः लंबे कथानक पर आधारित होता है। यह कई सर्गों में विभाजित होता हैजिसमें एक लोकप्रिय नायक के चरित्र-विधान के साथ-साथ कई अन्य पात्रों का चरित्र-चित्रण समावेशित होता है। इसमें लोकादर्शउदात्त शैली एवं रचना संबंधी युग के संपूर्ण सामाजिक परिवेश का चित्रण होता है। अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔधके काव्य प्रियप्रवास’, जायसीकृत पद्मावत’, तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस’, प्रसादकृत कामायनी’, मैथिलीशरण गुप्तकृत साकेत’ हिन्दी के मुख्य महाकाव्य हैं। वर्तमानकाल में महाकाव्य के प्राचीन प्रतिमानों में परिवर्तन आया है। वर्तमान समय में महाकाव्य का विषय कोई लोकप्रिय नायक-विशेष न होकर घटना या समाज का कोई भी व्यक्ति हो सकता है। 

खण्डकाव्य (Khandakavya)

            जब किसी लोकनायक के जीवन के किसी एक अंश या खंड पर आधारित काव्य की रचना की जाती है तो उसे खण्डकाव्य कहा जाता है। इसकी रचना महाकाव्य की शैली पर ही की जाती है। जहाँ एक ओर महाकाव्य में संपूर्ण जीवनवृत्त पर प्रकाश डाला जाता हैवहीं दूसरी ओर खण्डकाव्य में जीवन के किसी एक पक्ष को चित्रित किया जाता है। यहाँ एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि खण्डकाव्य महाकाव्य का संक्षिप्त रूप नहीं है। जयद्रथवध’, ‘रश्मिरथी’, ‘सुदामा चरित्र’, ‘द्वापर' आदि खण्डकाव्य के उदाहरण हैं।

मुक्तक काव्य (Muktakkavya)

          मुक्तक रचनाओं को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथमतः गेय रचनाएँ जिनके अन्तर्गत सूरमीराकबीर आदि के पद आते हैं और द्वितीयतः विभिन्न विषयों पर लिखी गई छोटी-छोटी विचारप्रधान रचनाएँजैसे – तारसप्तक की रचनाएँपंत की पतझड़निराला जी की भिक्षु’, ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि।

Sunday, December 26, 2021

तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्द

 

हिंदी में उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के चार प्रकार हैं- तत्सम, द्भव, देशज और विदेशज

तत्सम :

तत्सम अर्थात तत (उसके) + सम (समान), यहाँ उस का तात्पर्य संस्कृत है तत्सम शब्द वे शब्द हैं जिन्हें संस्कृत से उसी रूप लिये गए हैं, जैसे वे संस्कृत में मिलती थे

उदाहरण : माता, जल, तप, दान, अंधकार, सत्य, हानि आदि

द्भव :

द्भव दो शब्दों के मेल से निर्मित है- तत (उससे) + भव (निर्मित), जो शब्द संस्कृत के समान नहीं हैं, लेकिन कुछ परिवर्तन के साथ हिंदी में लिये गए हैं

उदहारण : अंधकार से अँधेरा, अग्नि से आग, अष्ट से आठ आदि



देशज :

  • देशज शब्द वे शब्द हैं जिनका जन्म देश में ही हुआ है
  • देशज शब्द की एक विशेषता यह भी है कि उसमें लोक या अंचल की संस्कृत की महक महसूस की जा सकती है
  • भारत में दूसरी भाषा से लिये गए शब्द भी देशज कहलाएंगे, अगर उस भाषा का जन्म भारत में हुआ हो


विदेशज शब्द :

विदेशज शब्द वे शब्द हैं जो हमारे देश में नहीं उपजे बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रकिया में हिंदी भाषा में स्वीकार किये गए हैं

हालाँकि देशज और विदेशज, दोनों ही प्रकार के शब्द दूसरी भाषाओं से संबंद्ध होते हैं, किंतु देशज शब्दों का संबंध इसी देश की भाषाओं और विदेशज का विदेशी भाषाओं से होता है    


संदर्भ :  दृष्टि प्रकाशन 

Friday, December 24, 2021

व्याकरणिक कोटियां; लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल, पक्ष, वृत्ति, वाच्य

 

व्याकरणिक कोटियां :

जो रूप किसी भाषा को सुव्यवस्थित एवं परिपूर्ण बनाते हैं वे उस भाषा की व्याकरणिक कोटियां कहलाते हैं। किसी भाषा के प्रयोग की सार्थकता उसके द्वारा अभिव्यक्त होने वाले भाव एवं विचारों की पूर्ण अस्पष्टता है इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक वाक्य में प्रयोग किए गए पद सुव्यवस्थित हों अर्थात संबंधतत्व और अर्थतत्व में पूर्ण रुप से समानता हो।

भाषाओं में रूप परिवर्तन संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि तथा क्रिया पदों में लिंग, वचन, कारक. पुरुष, काल, अर्थ आदि के अनुसार ही होता है।

आधुनिक विचारकों के अनुसार लिंग, वचन, पुरुष और कारक संज्ञा और सर्वनाम की व्याकरणिक कोटियां हैं और काल, पक्ष, वृत्ति और वाच्य ‘क्रिया’ की व्याकरणिक कोटियां हैं, इनके द्वारा परिवर्तित विभिन्न रूप ही व्याकरणिक रूप हैं।

 


(1) लिंग :

संज्ञा के जिस रूप से वस्तु की जाति का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं। हिंदी में दो लिंग होते हैं (1)पुलिंग (2) स्त्रीलिंग।

कई भाषाओं में लिंग भेद नहीं होता है; जैसे- अंग्रेजी, चीनी, लैटिन। अंग्रेजी के 1 उदाहरण से हम इसे देख सकते हैं। 

He come. (वह जाता है)

She come. (वह जाती है)

यहां पर देखा जा सकता है कि क्रिया Come पर लिंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लिंग संज्ञा शब्दों में अंतर्निहित नहीं होता है।

सर्वनाम का कोई लिंग नहीं होता है।

मैं जा रहा हूं।

मैं जा रही हूं।

हम देखते हैं कि कभी-कभी स्वतंत्र रूप से शब्द जोड़कर लिंग बनाना पड़ता है। जैसे- नर गैंडा, मादा गैंडा।

कभी-कभी दोनों शब्द अलग होते हैं; जैसे- स्त्री/पुरुष, लड़का/लड़की, माता/पिता।

सृष्टि की संपूर्ण वस्तुओं की मुख्य दो जाति हैं- चेतन और जड़। चेतन वस्तु में पुरुष और स्त्री जाति का बोध होता है परंतु जड़ पदार्थों में यह भेद नहीं होता है। इसलिए संपूर्ण वस्तुओं की एकत्र 3 जातियां होती हैं- पुरुष, स्त्री और जड़।

कई भाषाओं जैसे अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, गुजराती आदि भाषाओँ में भी तीन लिंग होते हैं परंतु उनमें कुछ जड़ पदार्थों को उनकी कुछ विशेष गुणों के कारण सचेतन मान लिया गया है।

 


(2) वचन :

संज्ञा और दूसरे विकारी शब्दों के जिस रूप से संज्ञा का बोध होता है, उसे वचन कहते हैं। हिंदी में वचन दो होते हैं-

(1) एकवचन : संज्ञा के जिस रूप से एक ही वस्तु का बोध होता है उसे एक वचन कहते हैं। जैसे- लड़का, कपड़ा, टोपी, पंछी, जानवर आदि।

 (2) बहुवचन : संज्ञा के जिस रूप से अधिक वस्तुओं का बोध होता है उसे वह वजन कहते हैं। जैसे- लड़के, कपड़े, टोपियां, पक्षियों, जानवरों आदि।

जो वस्तुएं गिनी नहीं जा सकती हैं उनका बहुवचन नहीं होता है; जैसे- अनाज, आटा, दूध आदि।

आदर के लिए भी बहुवचन का प्रयोग होता है; जैसे- राजा के बड़े बेटे आए हैं, करण ऋषि तो ब्रह्मचारी हैं। विशेषण पर भी वचन का प्रभाव पड़ता है; जैसे- अच्छा / अच्छे, सस्ते / सस्ते आदि।

क्रियाओं पर भी वचन का प्रभाव पड़ता है; जैसे- लड़का आया, लड़के आए। यहां हम देख सकते हैं कि लड़का एकवचन के साथ क्रिया ‘आया’ आया है और लड़के के साथ क्रिया ‘आए’ आया है। हिंदी के कई एक व्याकरण में वचन का विस्तार कारक के साथ किया गया है जिसका कारण यह है कि बहुत से शब्दों में बहुवचन के प्रत्यय विभक्तियों के बिना नहीं लगाए जाते। जैसे- ‘मूल रंग तीन हैं’ इस वाक्य में रंग शब्द बहुवचन है पर यह बात केवल क्रिया से तथा विधेय-विशेषण ‘तीन’ से जानी जाती है पर स्वयं ‘रंग’ शब्द में बहुवचन का कोई चिह्न नहीं है क्योंकि यह शब्द विभक्ति रहित है। विभक्ति के योग से ‘रंग’ शब्द का बहुवचन रूप ‘रंगों’ होता है; जैसे- इन रंगों में कौन अच्छा है।

संस्कृत में वचन का विचार विभक्तियों के साथ होता है इसलिए हिंदी में भी उसी चाल का अनुकरण किया जाता है। 

 


(3) पुरुष :

पुरुष वह रूप है जो क्रिया, वचन, लिंग तथा सर्वनाम को प्रभावित करता है। भाषा के प्रयोग के आधार पर पुरुष तीन होते हैं- (1) उत्तम पुरुष, (2) मध्यम पुरुष तथा (3) अन्य पुरुष। वक्ता प्रथम पुरुष, श्रोता मध्यम पुरुष और जिसके संबंध में कथन हो व अन्य पुरुष होता है। पुरुष के आधार पर ही क्रियाओं में परिवर्तन होता है। अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी आदि में तीन पुरुष होते हैं परंतु चीनी भाषा में ऐसा नहीं होता है।

पुरुष के एकवचन रूप अपवर्जी और बहुवचन समावेशी होते हैं; जैसे- ‘मैं चला’ इस वाक्य में वक्ता के अतिरिक्त और किसी का बोध नहीं होता किंतु ‘हम चले’ वक्ता श्रोता के अतिरिक्त वहां उपस्थित और लोग भी समाप्त हो जाते हैं। ‘तू चले’ या ‘वह चले’ से निर्दिष्ट व्यक्ति के अतिरिक्त और किसी का ग्रहण नहीं होता है किंतु ‘तुम चलो’ और ‘वह चलें’ से श्रोता से अतिरिक्त और का भी ग्रहण होता है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पुरुष का एकवचन अपवर्जी होता है और बहुवचन समावेशी होता है। पुरुष और वचन का संबंध बहुत घनिष्ठ है पुरुष का प्रमुख क्षेत्र ‘क्रिया’ है गौण रूप से उसका प्रयोग सर्वनामों के लिए भी होता है।

 


(4) कारक :

पारंपरिक परिभाषा के अनुसार संज्ञा या सर्वनाम के जिस रुप से उसका संबंध हुआ कि किसी दूसरे शब्द के साथ प्रकाशित होता है उस रूप को कारक कहते हैं- कामता प्रसाद गुरु

पारंपरिक व्याकरण के अनुसार हिंदी में आठ कारक हैं इनके नाम और विभक्ति या नीचे दिए गए हैं।

1.     कर्ता                ने

2.     कर्म                को

3.     करण               से

4.     संप्रदान           के लिए

5.     अपादान         से, अलगाव

6.     संबंध             का, के, की

7.     अधिकरण       में, पर

8.     संबोधन          हे! अहो! अरे!

आधुनिक परिभाषा वाक्य में जितने भी संख्याएं होती हैं उनका संबंध क्रिया के साथ व्यक्त करने वाला संबंध कारक कहलाता है। जैसे- राम कल दिल्ली से आया। इस वाक्य में ‘राम’ ‘कल’ ‘दिल्ली से’ तीनों संज्ञाओं का ‘आया’ के साथ संबंध है लेकिन यदि यह कहा जाए कि ‘श्याम का बेटा राम कल दिल्ली से आया’ इस वाक्य में ‘श्याम’ का क्रिया ‘आया’ से कोई संबंध नहीं है इसलिए यह कारक नहीं है।

आधुनिक व्याकरण के अनुसार कारक छह प्रकार के होते हैं।

1.     कर्ता कारक 

2.     कर्म कारक 

3.     करण कारक

4.     संप्रदान कारक

5.     अपादान कारक 

6.     अधिकरण कारक

 


(5) काल :

क्रिया के करने में जो समय लगता है उसे कल कहते हैं।      - राम लक्ष्मण प्रसाद

काल के तीन भेद हैं -

(1) भूतकाल - जो बीते हुए समय का ज्ञान कराता है, जैसे- राम पटना गया, उसने पढ़ा था।

भूतकाल के 6 भेद हैं-

1.     हेतुहेतुमद भूत - वह आता तो मैं जाता।

2.     आसन्न भूत - मैंने पढ़ा है।

3.     पूर्ण भूत - वह भागलपुर गया था।

4.     सामान्य भूत - रवि ने भात खिलाया।

5.     अपूर्ण भूत - वह आम खाता था।

6.     संदिग्ध भूत - वह आया होगा।

(2) वर्तमान काल : वर्तमान में जिस का आरंभ हो चुका हूं परंतु समाप्ति नहीं हुई हो, उसे वर्तमान काल कहते हैं। जैसे- राम खाता है, घोड़ा दौड़ रहा है।

वर्तमान काल के तीन भेद होते हैं -

1.     तात्कालिक वर्तमान - हरिमोहन मनपसंद गुलकंद खा रहा है।

2.     सामान्य वर्तमान - मैं प्रतिदिन रामायण पड़ता हूं।

3.     संदिग्ध वर्तमान - गुरुचरण खाने का प्रबंध करता होगा।

(3) भविष्य काल : आने वाले समय को भविष्यत काल कहते हैं। जैसे- राम पुस्तक पढ़ेगा, वह पटना जाएंगे।

भविष्यत काल के दो भेद हैं -

1.     सामान्य भविष्य - मैं जाऊंगा, तू पढ़ेगा।

2.     संभाव्य भविष्य - वह हंसे, वे बैठे।

 


(6) पक्ष :

किसी कार्य के पूर्ण होने या ना होने की सूचना के आधार पर पक्ष को दो भागों में बांटा गया है।

पूर्ण पक्ष - इस पक्ष से हमें यह सूचना मिलती है कि कार्य पूर्ण हो गया है अर्थात किसी कार्य के पूर्ण होने की सूचना मिलती है। जैसे- वह खाना खा लिया है, वह अपना पाठ पढ़ चुका है।

अपूर्ण पक्ष - जिसमें कार्य के पूर्ण होने की सूचना नहीं मिलती है, अब पूर्ण पक्ष कहलाता है और अपूर्ण पक्ष के निम्न भेद होते हैं -

ü सत्यता बोधक - लड़का बैठ रहा है, वह पढ़ रहा था।

ü अभ्यास बोधक - वह रोज स्कूल जाता है, वह सांस लेता है।

ü नित्यता बोधक - सूर्य पूरब में निकलता है, पृथ्वी घूमती है।

ü आरंभ बोधक - वह पढ़ने लगा, उसे देखकर वह जाने लगा।

ü आरंभ पूर्ण बोधक - वह अब जाने वाला है ,अब वह उठने वाला है।



(7) वृत्ति :

वाह सहायक क्रिया जिससे किसी वक्ता के मनःस्थिति का बोध होता है, वृति है। इसके कुछ निम्न प्रकार हैं।

ü आज्ञार्थक - जिससे आज्ञा का भाव प्रकट हो, जैसे- तू जा, तुम जाओ, आप जाइए।

ü प्रेरणार्थक - जिसमें अनुनय विनय का भाव प्रकट हो, जैसे- कृपया मुझे दे या दीजिए।

ü सक्यता बोधक - जिसमें कुछ किसी कार्य को कर सकने का भाव प्रकट हो, जैसे- मैं बोल सकता हूं, मैं पढ़ सकता हूं।

ü विवशता बोधक - किसी कार्य को ना चाहते हुए भी करना पड़े ऐसा भाव प्रकट हो, जैसे- मुझे कानपुर जाना पड़ेगा।

ü परामर्श बोधक - किसी को परामर्श देने का भाव प्रकट हो, जैसे- उसे पढ़ना चाहिए, उसे जाना चाहिए।

ü संभावनार्थक - जिससे संभावना का भाव प्रकट हो, जैसे- वह कल जरूर आएगा।



(8) वाच्य :

कर्ता एवं कर्म की प्रधानता के आधार पर वाक्य में कोई कार्य कर्ता के द्वारा संपन्न हो रहा है या कर्म के द्वारा इसका निर्धारण वाच्य के माध्यम से होता है।

वाच्य के दो भेद हैं -

ü कर्तवाच्य - जिस वाक्य में कर्ता के द्वारा कार्य संपन्न हो, वह कर्तवाच्य होता है; जैसे- राम आम खाता है, लड़का मैदान में दौड़ रहा था। इसमें सकर्मक, अकर्मक दोनों क्रियाएं आती है।

ü कर्मवाच्य - जिस वाक्य में कर्म के द्वारा कार्य संपन्न हो, वह कर्मवाच्य होता है; जैसे- आम राम के द्वारा खाया गया, मैदान में लड़का द्वारा दौड़ा गया। इसमें केवल अकर्मक क्रियाएं आती हैं।

संदर्भ :        कामता प्रसाद गुरु : हिंदी व्याकरण 
                   अनिल कुमार पाण्डेय : हिंदी संरचना के विविध पक्ष