व्याकरणिक
कोटियां :
जो
रूप किसी भाषा को सुव्यवस्थित एवं परिपूर्ण बनाते हैं वे उस भाषा की व्याकरणिक
कोटियां कहलाते हैं। किसी भाषा के प्रयोग की सार्थकता उसके द्वारा अभिव्यक्त होने
वाले भाव एवं विचारों की पूर्ण अस्पष्टता है इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक वाक्य
में प्रयोग किए गए पद सुव्यवस्थित हों अर्थात संबंधतत्व और अर्थतत्व में पूर्ण रुप
से समानता हो।
भाषाओं
में रूप परिवर्तन संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि तथा क्रिया पदों में लिंग, वचन, कारक.
पुरुष, काल, अर्थ आदि के अनुसार ही होता है।
आधुनिक
विचारकों के अनुसार लिंग, वचन, पुरुष और कारक संज्ञा और सर्वनाम की व्याकरणिक कोटियां हैं और काल, पक्ष,
वृत्ति और वाच्य ‘क्रिया’ की व्याकरणिक कोटियां हैं, इनके द्वारा परिवर्तित
विभिन्न रूप ही व्याकरणिक रूप हैं।
(1)
लिंग :
संज्ञा
के जिस रूप से वस्तु की जाति का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं। हिंदी में दो लिंग
होते हैं –(1)पुलिंग
(2) स्त्रीलिंग।
कई
भाषाओं में लिंग भेद नहीं होता है; जैसे- अंग्रेजी, चीनी, लैटिन। अंग्रेजी के 1 उदाहरण
से हम इसे देख सकते हैं।
He come. (वह जाता है)
She come. (वह जाती है)
यहां
पर देखा जा सकता है कि क्रिया Come पर लिंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लिंग संज्ञा शब्दों में अंतर्निहित
नहीं होता है।
सर्वनाम
का कोई लिंग नहीं होता है।
मैं जा रहा हूं।
मैं जा रही हूं।
हम
देखते हैं कि कभी-कभी स्वतंत्र रूप से शब्द जोड़कर लिंग बनाना पड़ता है। जैसे-
नर गैंडा, मादा गैंडा।
कभी-कभी
दोनों शब्द अलग होते हैं; जैसे- स्त्री/पुरुष, लड़का/लड़की, माता/पिता।
सृष्टि
की संपूर्ण वस्तुओं की मुख्य दो जाति हैं- चेतन और जड़। चेतन वस्तु में पुरुष और
स्त्री जाति का बोध होता है परंतु जड़ पदार्थों में यह भेद नहीं होता है। इसलिए
संपूर्ण वस्तुओं की एकत्र 3 जातियां
होती हैं- पुरुष, स्त्री और जड़।
कई
भाषाओं जैसे अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, गुजराती आदि भाषाओँ में भी तीन लिंग होते
हैं परंतु उनमें कुछ जड़ पदार्थों को उनकी कुछ विशेष गुणों के कारण सचेतन मान लिया
गया है।
(2)
वचन :
संज्ञा
और दूसरे विकारी शब्दों के जिस रूप से संज्ञा का बोध होता है, उसे वचन कहते हैं।
हिंदी में वचन दो होते हैं-
(1)
एकवचन : संज्ञा के जिस रूप से
एक ही वस्तु का बोध होता है उसे एक वचन कहते हैं। जैसे- लड़का, कपड़ा, टोपी, पंछी,
जानवर आदि।
(2) बहुवचन : संज्ञा के जिस रूप से अधिक
वस्तुओं का बोध होता है उसे वह वजन कहते हैं। जैसे- लड़के, कपड़े, टोपियां,
पक्षियों, जानवरों आदि।
जो
वस्तुएं गिनी नहीं जा सकती हैं उनका बहुवचन नहीं होता है; जैसे- अनाज, आटा, दूध
आदि।
आदर
के लिए भी बहुवचन का प्रयोग होता है; जैसे- राजा के बड़े बेटे आए हैं, करण ऋषि तो
ब्रह्मचारी हैं। विशेषण पर भी वचन का प्रभाव पड़ता है; जैसे- अच्छा / अच्छे, सस्ते
/ सस्ते आदि।
क्रियाओं
पर भी वचन का प्रभाव पड़ता है; जैसे- लड़का आया, लड़के आए। यहां हम देख सकते हैं
कि लड़का एकवचन के साथ क्रिया ‘आया’ आया है और लड़के के साथ क्रिया ‘आए’ आया है।
हिंदी के कई एक व्याकरण में वचन का विस्तार कारक के साथ किया गया है जिसका कारण यह
है कि बहुत से शब्दों में बहुवचन के प्रत्यय विभक्तियों के बिना नहीं लगाए जाते।
जैसे- ‘मूल रंग तीन हैं’ इस वाक्य में रंग शब्द बहुवचन है पर यह बात केवल क्रिया
से तथा विधेय-विशेषण ‘तीन’ से जानी जाती है पर स्वयं ‘रंग’ शब्द में बहुवचन का कोई
चिह्न नहीं है क्योंकि यह शब्द विभक्ति रहित है। विभक्ति के योग से ‘रंग’ शब्द का
बहुवचन रूप ‘रंगों’ होता है; जैसे- इन रंगों में कौन अच्छा है।
संस्कृत
में वचन का विचार विभक्तियों के साथ होता है इसलिए हिंदी में भी उसी चाल का अनुकरण
किया जाता है।
(3)
पुरुष :
पुरुष
वह रूप है जो क्रिया, वचन, लिंग तथा सर्वनाम को प्रभावित करता है। भाषा के प्रयोग
के आधार पर पुरुष तीन होते हैं- (1) उत्तम पुरुष, (2) मध्यम पुरुष तथा (3) अन्य
पुरुष। वक्ता प्रथम पुरुष, श्रोता मध्यम पुरुष और जिसके संबंध में कथन हो व
अन्य पुरुष होता है। पुरुष के आधार पर ही क्रियाओं में परिवर्तन होता है। अंग्रेजी,
संस्कृत, हिंदी आदि में तीन पुरुष होते हैं परंतु चीनी भाषा में ऐसा नहीं होता है।
पुरुष
के एकवचन रूप अपवर्जी और बहुवचन समावेशी होते हैं; जैसे- ‘मैं चला’ इस वाक्य में
वक्ता के अतिरिक्त और किसी का बोध नहीं होता किंतु ‘हम चले’ वक्ता श्रोता के
अतिरिक्त वहां उपस्थित और लोग भी समाप्त हो जाते हैं। ‘तू चले’ या ‘वह चले’ से
निर्दिष्ट व्यक्ति के अतिरिक्त और किसी का ग्रहण नहीं होता है किंतु ‘तुम चलो’ और ‘वह
चलें’ से श्रोता से अतिरिक्त और का भी ग्रहण होता है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि
पुरुष का एकवचन अपवर्जी होता है और बहुवचन समावेशी होता है। पुरुष और वचन का संबंध
बहुत घनिष्ठ है पुरुष का प्रमुख क्षेत्र ‘क्रिया’ है गौण रूप से उसका प्रयोग सर्वनामों
के लिए भी होता है।
(4)
कारक :
पारंपरिक
परिभाषा के अनुसार संज्ञा या सर्वनाम के जिस रुप से उसका संबंध हुआ कि किसी दूसरे
शब्द के साथ प्रकाशित होता है उस रूप को कारक कहते हैं- कामता प्रसाद गुरु।
पारंपरिक
व्याकरण के अनुसार हिंदी में आठ कारक हैं इनके नाम और विभक्ति या नीचे दिए गए हैं।
1.
कर्ता ने
2.
कर्म को
3.
करण से
4.
संप्रदान के लिए
5.
अपादान से, अलगाव
6.
संबंध का, के, की
7.
अधिकरण में, पर
8.
संबोधन हे! अहो! अरे!
आधुनिक
परिभाषा वाक्य में जितने भी संख्याएं होती हैं उनका संबंध क्रिया के साथ व्यक्त
करने वाला संबंध कारक कहलाता है। जैसे- राम कल दिल्ली से आया। इस वाक्य में ‘राम’ ‘कल’
‘दिल्ली से’ तीनों संज्ञाओं का ‘आया’ के साथ संबंध है लेकिन यदि यह कहा जाए कि ‘श्याम
का बेटा राम कल दिल्ली से आया’ इस वाक्य में ‘श्याम’ का क्रिया ‘आया’ से कोई संबंध
नहीं है इसलिए यह कारक नहीं है।
आधुनिक
व्याकरण के अनुसार कारक छह प्रकार के होते हैं।
1.
कर्ता कारक
2.
कर्म कारक
3.
करण कारक
4.
संप्रदान कारक
5.
अपादान कारक
6.
अधिकरण कारक
(5)
काल :
क्रिया
के करने में जो समय लगता है उसे कल कहते हैं।
- राम लक्ष्मण प्रसाद
काल
के तीन भेद हैं -
(1)
भूतकाल - जो बीते हुए समय का
ज्ञान कराता है, जैसे- राम पटना गया, उसने पढ़ा था।
भूतकाल
के 6 भेद
हैं-
1.
हेतुहेतुमद भूत - वह आता तो मैं जाता।
2.
आसन्न भूत - मैंने पढ़ा है।
3.
पूर्ण भूत - वह भागलपुर गया था।
4.
सामान्य भूत - रवि ने भात खिलाया।
5.
अपूर्ण भूत - वह आम खाता था।
6.
संदिग्ध भूत - वह आया होगा।
(2)
वर्तमान काल : वर्तमान में जिस का
आरंभ हो चुका हूं परंतु समाप्ति नहीं हुई हो, उसे वर्तमान काल कहते हैं। जैसे- राम
खाता है, घोड़ा दौड़ रहा है।
वर्तमान
काल के तीन भेद होते हैं -
1.
तात्कालिक वर्तमान - हरिमोहन मनपसंद गुलकंद खा रहा है।
2.
सामान्य वर्तमान - मैं प्रतिदिन रामायण पड़ता हूं।
3.
संदिग्ध वर्तमान - गुरुचरण खाने का प्रबंध करता होगा।
(3)
भविष्य काल : आने वाले समय को
भविष्यत काल कहते हैं। जैसे- राम पुस्तक पढ़ेगा, वह पटना जाएंगे।
भविष्यत
काल के दो भेद हैं -
1.
सामान्य भविष्य - मैं जाऊंगा, तू पढ़ेगा।
2.
संभाव्य भविष्य - वह हंसे, वे बैठे।
(6)
पक्ष :
किसी
कार्य के पूर्ण होने या ना होने की सूचना के आधार पर पक्ष को दो भागों में बांटा
गया है।
पूर्ण
पक्ष - इस पक्ष से हमें यह सूचना मिलती है कि कार्य पूर्ण हो गया है अर्थात किसी
कार्य के पूर्ण होने की सूचना मिलती है। जैसे- वह खाना खा लिया है, वह अपना पाठ
पढ़ चुका है।
अपूर्ण
पक्ष - जिसमें कार्य के पूर्ण होने की सूचना नहीं मिलती है, अब पूर्ण पक्ष कहलाता
है और अपूर्ण पक्ष के निम्न भेद होते हैं -
ü
सत्यता बोधक - लड़का बैठ रहा है, वह पढ़ रहा था।
ü
अभ्यास बोधक - वह रोज स्कूल जाता है, वह सांस लेता है।
ü
नित्यता बोधक - सूर्य पूरब में निकलता है, पृथ्वी घूमती है।
ü
आरंभ बोधक - वह पढ़ने लगा, उसे देखकर वह जाने लगा।
ü आरंभ पूर्ण बोधक - वह अब जाने वाला है ,अब वह उठने वाला है।
(7)
वृत्ति :
वाह
सहायक क्रिया जिससे किसी वक्ता के मनःस्थिति का बोध होता है, वृति है। इसके कुछ
निम्न प्रकार हैं।
ü
आज्ञार्थक - जिससे आज्ञा का भाव प्रकट हो, जैसे- तू जा, तुम जाओ, आप जाइए।
ü
प्रेरणार्थक - जिसमें अनुनय विनय का भाव प्रकट हो, जैसे- कृपया मुझे दे या दीजिए।
ü
सक्यता बोधक - जिसमें कुछ किसी कार्य को कर सकने का भाव प्रकट हो, जैसे- मैं बोल
सकता हूं, मैं पढ़ सकता हूं।
ü
विवशता बोधक - किसी कार्य को ना चाहते हुए भी करना पड़े ऐसा भाव प्रकट हो, जैसे-
मुझे कानपुर जाना पड़ेगा।
ü
परामर्श बोधक - किसी को परामर्श देने का भाव प्रकट हो, जैसे- उसे पढ़ना चाहिए,
उसे जाना चाहिए।
ü
संभावनार्थक - जिससे संभावना का भाव प्रकट हो, जैसे- वह कल जरूर आएगा।
(8)
वाच्य :
कर्ता
एवं कर्म की प्रधानता के आधार पर वाक्य में कोई कार्य कर्ता के द्वारा संपन्न हो
रहा है या कर्म के द्वारा इसका निर्धारण वाच्य के माध्यम से होता है।
वाच्य
के दो भेद हैं -
ü
कर्तवाच्य - जिस वाक्य में कर्ता के द्वारा कार्य संपन्न हो, वह कर्तवाच्य
होता है; जैसे- राम आम खाता है, लड़का मैदान में दौड़ रहा था। इसमें सकर्मक,
अकर्मक दोनों क्रियाएं आती है।
ü
कर्मवाच्य - जिस वाक्य में कर्म के द्वारा कार्य संपन्न हो, वह कर्मवाच्य होता
है; जैसे- आम राम के द्वारा खाया गया, मैदान में लड़का द्वारा दौड़ा गया। इसमें
केवल अकर्मक क्रियाएं आती हैं।
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