Friday, December 10, 2021

रस की परिभाषा एवं रस के भेद/प्रकार

 रस - संस्कृति में रस की व्युत्पत्ति 'रस्यमते असौ इति रसा:' के रूप में हुई है अर्थात जिसका रसास्वादन किया जाए वही रस है। परंतु साहित्य में कविता, कहानी या उपन्यास आदि को पढ़ने या सुनने से एवं नाटक को देखने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं।

“विभावानुभावव्यभिचारिससंयोगाद्रसनिष्पत्ति”    - भरत मुनि (नाट्यशास्त्र में)

स्थायी भाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से ‘रस’ की निष्पत्ति होती है।

रसों के आधार ‘भाव’ हैं। भाव मन के विकारों को कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं - स्थायी भाव व संचारी भाव। इन्हीं को काव्य के अंग कहते हैं।



स्थायी भाव - भाव का जहां स्थायित्व हो, उसे ही स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव को भरत मुनि ने आठ माना है - रति, हास, शोक, रौद्र, उत्साह, भय, जुगुत्सा, विस्मय। स्थायी भाव के दे भेद- 1.विभाव 2.अनुभाव

बाद के आचार्यों ने तीन और बताए है - शांत, भक्तिवात्सल्य।

‘स्थायी भा.’  रस’        स्थायी भा.      रस

रति     -    श्रृंगार                 शोक     -   करुण

आश्चर्य - अदभुत                उत्साह     -   वीर      

निर्वेद   -   शांत                   हास      -   हास्य

क्रोध     -    रौद्र                   भय      -   भयानक    

 ग्लानि - बीभत्स                वत्सलता   -   वात्सल्य 

विभाव - जो पदार्थ, व्यक्ति अथवा वाह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जागृत करता है, उन कारणों को ‘विभाव’ कहते हैं। (१) आलंबन विभाव (२) उद्दीपन विभाव।

अनुभाव - आलंबन और उद्दीपन विभावों के कारण उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य या आश्रय या चेष्टाओं को पुष्ट करने वाले भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, अनुभाव कहलाते हैं। इसके तीन भेद हैं- (1) कायिक अनुभाव, (2) मानसिक अनुभाव (3) आहार्य अनुभाव ।

संचारी या व्यभिचारी भाव - ये भाव स्थायी भावों के सहायक हैं तथा परिस्थितियों के अनुरूप घटते-बढ़ते रहते हैं। शंका, ग्लानि, मद, दीनता आदि इसकी संख्या 33 है।

रस के भेद -



श्रृंगार रस - नायक और नायिका के मन में स्थित प्रेम जब रस की अवस्था को पहुंचकर आसवादन के योग्य हो जाता है श्रृंगार रस कहलाता है। जैसे-

राम को रूप निहारती जानकी कंकन के नग की परछहीं।

यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकी रही, पल टार त नाहीं।।

हास्य रस - वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि की विकृति को देखकर हृदय में विनोद का जो भाव जाग्रत होता है, वह हास्य रस कहलाता है। जैसे-

शीश पर गंगा हंसौ, जट में भुजंगा हसौं।

हांस ही में दंगा भयौ, नंगा के विवाह में।।

करुण रस - बंधु विनाश, बंधु वियोग, द्रव्य नाश और प्रेमी के सदैव के लिए बिछूड़ जाने के कारण से करुण रस उत्पन्न होता है। जैसे-  

अभी तो मुकुट बंधा था हाथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ।

खुले भी न थे लाज के बोल,खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।।

रौद्र रस - जहां विपक्ष द्वारा किए गए अपमान अथवा किसी द्वारा किए गए निंदा आदि से क्रोध उत्पन्न होता है, वहां रौद्र रस होता है। जैसे-

उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उनका लगा।

मानो हवा के ज़ोर से सोता हुआ सागर जगा।।

वीर रस - युद्ध अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए हृदय में जो उत्साह जाग्रत होता है, उससे वीर रस की निष्पत्ति होती है। जैसे-

रण बीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।

राणा प्रताप के घोड़े का, पड़ गया हवा से पाला था।

भयानक रस - किसी भयानक या अनिष्टकारी व्यक्ति या वस्तु को देखने, उससे संबंधित वर्णन सुनने, समर्पण करने आदि से चित्त में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, इसी भय से ‘भयानक रस’ की निष्पत्ती होती है। जैसे-

एक ओर अजगरी लखी, एक ओर मृगराय।

विकल बटोही बीच ही परयो मूर्छा खाय।।

बीभत्स रस - घृणित वस्तुओं को देखकर या उनके संबंध में सुनकर उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि बीभत्स रस की पुष्टि करता है। जैसे-

सिर पर बैठो काग, आंखी दोऊ खात निकारत।

खींचत जीभहीं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत।।

अदभुत रस - विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर हृदय में विस्मय आदि की भाव उत्पन्न होते है, इस विस्मय से अद्भुत रस की निष्पत्ति होती है। जैसे-

ईहां उहां दुई बालक देखा, मति भ्रम मोरी कि आनी विसेखा।

तन पुलकित मन बचन न आवा, नयन मूदी चरनन सिर नावा।।

शांत रस - तत्व ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर शांत रस की उत्पत्ति होती है। जैसे-

कबहुंक हौं यही रहनी रहौंगौ।

श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें संत स्वभाव गहौंगौ।।

जथालाभ संतोष सदा काहू से कछु न चाहौंगो।

परहित निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबाहौंगो।।


संदर्भ ; काव्यांजलि; मास्टरमाइंड पब्लिकेशन

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