Tuesday, August 9, 2022

तुलसीदास की जीवनी, रचनाएँ, शैली, भाषा, रस, छंद और अलंकार (Biography of Tulsidas, books/Texts, Language, Style, Ras, Chhand & Figures of Speech)

 

तुलसीदास का जीवनकाल

गोस्वामी तुलसीदास (जीवनकाल सन् 1532-1623 ई०) गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक नहीं प्राप्त हो सकी है। डॉ० नगेन्द्र द्वारा लिखित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास में उनके सन्दर्भ में जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं - बेनीमाधव प्रणीत ‘मूल गोसाईपरित’ तथा महात्मा रघुवरदास रचित ‘तुलसीचरित’ में तुलसीदासजी का जन्म संवत् 1554 वि० (सन् 1497) दिया गया है। बेनीमाधवदास की रचना में गोस्वामीजी की जन्म तिथि शुक्ल सप्तमी का भी उल्लेख है। इस संबंध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है-

पंद्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धर्यो सरीर ।।

'शिवसिंह सरोज' में इनका जन्म संवत् 1583 वि० (सन् 1526 ई०) बताया गया है। पं० रामगुलाम द्विवेदी ने इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532) स्वीकार किया है। सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा भी इसी जन्म संवत् को मान्यता दी गई है। अन्तःसाक्ष्य के आधार पर इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532 ई०) युक्तियुक्त प्रतीत होता है। इनके जन्म स्थान के संबंध में भी पर्याप्त मतभेद हैं। मूल गोसाईचरित 'एवं' ‘तुलसीचरित’ में इनका ‘जन्मस्थान राजापुर’ बताया गया है। शिवसिंह सेंगर और रामगुलाम द्विवेदी भी राजापुर को गोस्वामीजी का जन्म स्थान मानते हैं। कुछ विद्वान् तुलसीदास द्वारा रचित पंक्ति मैं पुनि निज गुरु सन सुनि, कथा सो सुकरखेत; के आधार पर इनका जन्मस्थल ‘सोरो’ नामक स्थान को मानते हैं, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि विद्वानों का मत है कि ‘सूकरखेत’ को भ्रमवश ‘सोरो’ मान लिया गया है। 'सूकरखेत’ गोंडा जिले में सरयू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है। मनश्रुतियों के आधार पर यह माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के ‘पिता का नाम आत्माराम दुबे’ एवं माता का नाम ‘ठुलसी’ था। कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। 'कवितावली’ के ‘मातु पिता जग जाइ तज्यों विधिहू न लिख्यो कछु भाल भला है’ अथवा ‘बारे तै ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, चाहत हो चारि फल चारि ही चनक को’ आदि अन्तःसाक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि तुलसीदास का बचपन अनेकानेक आपदाओं के बीच व्यतीत हुआ है। इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त ‘बाबा नरहरिदास’ ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इन्हीं की कृपा से तुलसीदासजी वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि में निष्णात हो गए। इनका विवाह पं० दीनबन्धु पाठक की पुत्री 'रत्नावली' से हुआ था। कहा जाता है कि ये अपनी रूपवती पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त थे। इस पर इनकी पत्नी ने एक बार इनकी भर्त्सना करते हुए कहा- ‘लाज न आयी आपको दौरे आये साथ। इससे इनकी भावधारा प्रभु की ओर उन्मुख हो गई। संवत् 1680 (सन् 1623 ई०) में ‘काशी’ में इनका निधन हो गया। इस संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है ‘संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ।। इनकी निधन-तिथि के विषय में अधिकांश विद्वान् "श्रावण शुक्ला सप्तमी के स्थान पर" श्रावण शुक्ला तीज शनि" मानते हैं।

तुलसीदास की रचनाएँ / ग्रंथ

गोस्वामी तुलसीदास 'श्रीरामचरितमानस', 'विनयपत्रिका', 'कवितावली', 'गीतावली', 'श्रीकृष्णगीतावली', 'दोहावली', 'रामललानहरू', ‘जानकी मंगल', 'पार्वती-मंगल', 'वैराग्य-संदीपनी', 'बरवै रामायण', 'रामाज्ञा प्रश्नावली', 'हनुमानबाहुक’ तथा ‘रामललानहछू’ आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

 

तुलसीदास की भाषा

तुलसी ने ‘ब्रज एवं अवधी’ दोनों ही भाषाओं में रचनाएँ की। उनका महाकाव्य 'श्रीरामचरितमानस’ ‘अवधी भाषा’ में लिखा गया है। ‘विनयपत्रिका', 'गीतावली' और 'कवितावली’ में ‘ब्रजभाषा’ का प्रयोग हुआ है। ‘मुहावरों और लोकोक्तियों’ के प्रयोग से भाषा के प्रभाव में विशेष वृद्धि हुई है।

 

तुलसीदास की शैली

तुलसी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है। 'श्रीरामचरितमानस' में ‘प्रबंध शैली’, 'विनयपत्रिका' में ‘मुक्तक शैली’ तथा ‘दोहावली’ में कबीर के समान प्रयुक्त की गई ‘साखी शैली’ स्पष्ट देखी जा सकती है। यत्र-तत्र अन्य शैलियों का प्रयोग भी किया गया है।

                                                                           

तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त ‘रस, छंद और अलंकार’

तुलसी ने चौपाई, दोहा, सोरठा, कवित, सवैया, दरवै, छप्पय आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है।

तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग सहज स्वाभाविक रूप में किया गया है। इन्होंने अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, अनन्वय, श्लेष, सन्देह, असंगति एवं दृष्टान्त अलंकारों के प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किए हैं। तुलसी के काव्य में विभिन्न रसों का सुंदर परिपाक हुआ है। यद्यपि उनके काव्य में शान्त रस प्रमुख हैं, परन्तु शृंगार रस की अद्भुत छटा भी दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त करुण, रौद्र, बीभत्स, भयानक, वीर, अद्भुत एवं हास्य रसों का भी प्रयोग किया गया है। तुलसी का काव्य गेय है। इसमें संगीतात्मकता के गुण सर्वत्र विद्यमान है। वास्तव में तुलसी हिन्दी साहित्य की महान विभूति हैं। उन्होंने रामभक्ति की मन्दाकिनी प्रवाहित करके जन-जन का जीवन कृतार्थ कर दिया।

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