पद और वाक्य (अभिहितान्वयवाद और
अन्विताभिधानवाद) पद और वाक्य के सापेक्ष महत्त्व पर दार्शनिकों
में पर्याप्त विवाद है। इस विषय पर न्यायदर्शन, मीमांसादर्शन और व्याकरण-दर्शन में बहुत विस्तार
से विचार हुआ है। मीमांसा के दो प्रमुख आचार्यों ने पद और वाक्य के सापेक्ष
महत्त्व पर दो विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं - (1) अभिहितान्वयवाद - इस वाद के प्रवर्तक ‘आचार्य
कुमारिल भट्ट’ हैं। इनका मत 'अभिहितान्वयवाद' कहा जाता है। इसका अर्थ है - 'अभिहितानां
पदार्थानाम् अन्वयः' पद अपने अर्थ को कहते हैं और उनका
वाक्य में अन्वय हो जाता है। इस अन्वय से एक विशिष्ट प्रकार का वाक्यार्थ निकलता
है। इस वाद को 'पद-वाद' कह सकते हैं।
इस वाद में पदों का महत्त्व है और पद-समूह ही वाक्य है। पद के अतिरिक्त वाक्य का
कोई महत्त्व नहीं है। |
वाक्य को तोड़ने से पृथक-पृथक पदों का अर्थ ज्ञात
होता है। वाक्य से पदों को निकालने को 'अपोद्धार' (Analysis) कहते हैं। इस वाद में
वाक्य को महत्त्व दिया गया है, अतः इसे 'वाक्यवाद' भी कह सकते हैं। 'अन्विताभिधानवाद' के अनुसार पदों की स्वतन्त्र
सत्ता नहीं है। वे वाक्य के अवयव हैं और वाक्य विश्लेषण से उनका अर्थ निकलता है।
इस मत के अनुसार 'वाक्य ही भाषा की सार्थक इकाई है’। आधुनिक भाषाविज्ञान भी इस मत का पोषक है कि 'Sentence is a significant unit' (वाक्य ही सार्थक इकाई है) आचार्य भर्तृहरि ने ‘वाक्यपदीय’ में इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है ‘पदों में
वर्णों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और न वर्णों में अवयवों की। वाक्य के
अतिरिक्त पदों की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।) विचार करने से ज्ञात होता है कि
'वाक्यवाद'
ही ग्राह्य मत है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है। 'अंगों का समूह शरीर है' या 'शरीर
के अवयव अंग है'। विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि
हाथ, पाँव, आँख, नाक आदि को मिलाकर शरीर नहीं बना है अपितु ये सभी अंग हमारे शरीर के
अवयव हैं। इसी प्रकार भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है । मन में विचार या
भाव समन्वित रूप में वाक्य के रूप में उदय होते हैं। उन वाक्यों को धारावाहिक
रूप में हम उच्चारण द्वारा प्रकट करते हैं। विचार संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि पदों के रूप में उदय नहीं होते हैं, अतः वाक्य की स्वाभाविक एवं
स्वतन्त्र सत्ता है। सामान्य जन को सिखाने के लिए वाक्य-विश्लेषण (अपोद्धार)
द्वारा नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात के रूप में वाक्य-विश्लेषण करके पद बनाए जाते हैं और उनका
अर्थ निर्धारित किया जाता है। यदि चिन्तन पदों के रूप में होगा तो विचारों का
प्रवाह ही नहीं बनेगा। वाक्य-प्रयोग वस्तुतः एक जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है
। वाक्य-प्रयोग का मनोवैज्ञानिक क्रम यह है - (1) चिन्तन - अपने अभीष्ट अर्थ का विचार करना, (2) चयन - उपयुक्त शब्दों को चुनना, (3) भाषिक गठन - व्याकरण के अनुरूप उन शब्दों को क्रमबद्ध
लगाना, (4)
उच्चारण -
उच्चारण के द्वारा वाक्य रूप में उन्हें प्रकट करना । ये चारों चीजें बहुत
सुसंबद्ध रूप में चलनी चाहिएँ,
तभी भाषण सुव्यवस्थित होगा। चिन्तन और उच्चारण में समरूपता न होने
पर अव्यवस्था होगी। चिन्तन शिथिल होने पर अटकना पड़ेगा, अधिक
तीव्र होने पर उच्चारण की गति साथ नहीं देगी। उच्चारण की गति तेज करने पर भाषा
अस्पष्ट हो जाएगीर प्रक्षेत्र क नहीं होगा । संदर्भ - इन दोनों वादों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें — लेखक - कृत अर्थ - विज्ञान और व्याकरण-दर्शन , अध्याय 8(८) पृष्ठ 327(३२७) से 344(३४४) तक । |
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