सूरदास
का जीवनकाल
सूरदास (जीवनकाल सन् 1478-1583 ई) सूर के जन्म स्थान एवं जन्म-तिथि के विषय में बहुत मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म वैशाख सुदी संवत् 1535 दि० (सन् 1478 ई) में ‘रुनकता’ नामक ग्राम के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। कुछ विद्वान ‘सीही’ नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम ‘पं० रामदास सारस्वत’ था। सूरदासजी जन्मान्य थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। कुछ लोगों का मत हैं कि प्रकृति तथा बाल-मनोवृत्तियों एवं मानव स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध कदापि नहीं कर सकता। सूरदास जी ‘वल्लभाचार्य’ के ‘शिष्य’ बन गए और उनके साथ ही ‘मथुरा के गऊघाट’ पर श्रीनाथजी के मन्दिर में रहने लगे। पहले ये ‘विनय’ के पद गाया करते थे, किन्तु वल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने पर कृष्ण लीला का गान करने लगे। सूर नित्य पद बनाकर उसे इकतारे पर गाकर भगवान की स्तुति करते थे। सूरदासजी की मृत्यु संवत् 1640 वि० (सन् 1583 ई०) में हुई थी।
सूरदास की रचनाएँ / ग्रंथ
'नागरी प्रचारिणी सभा’,
‘काशी की खोज’ तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर
सूरदास के ग्रन्थ की संख्या 25 मानी जाती है, किन्तु इनके
तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं -
सूरसागर
- सूरसागर एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रामाणिक माना है।
इसके सवा लाख में से लगभग 10 हजार पद ही उपलब्ध हो पाए हैं। 'सूरसागर’ पर ‘श्रीमद्भागवत’ का प्रभाव है। सम्पूर्ण सूरसागर एक ‘गीतिकाव्य’
है। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।
सूरसारावली
- यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति
में है, किन्तु कथावस्तु,
भाव, भाषा, शैली और रचना
की दृष्टि से निसंदेह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है। इसमें 1107 पद हैं। इसमें
कृष्ण की संयोग लीलाओं का अत्यंत मनोरम वर्णन किया गया है।
साहित्यलहरी
- ‘साहित्यलहरी’ में सूरदास के 118
दृष्टकूट-पदों का संग्रह है। ‘साहित्यलहरी’ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई
है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर
श्रीकृष्ण की बाल-लीला का वर्णन हुआ है तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत’ की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘सूरदास’ द्वारा रचित 'गोवर्धन-लीला’, 'नाग-लीला', 'पद संग्रह', ‘सूर-पचीसी’ आदि ग्रन्थ भी प्रकाश में आए हैं, परन्तु सूर की ख्याति ‘सूरसागर’ से ही हुई है।
इन्होंने अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीला के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। इनका काव्य 'श्रीमद्भागवत' से अत्यधिक प्रभावित रहा है, किन्तु उसमें इनकी विलक्षण मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर सूर ने जो रस का सागर उमड़ाया है, उसी से इनकी रचना का नाम ‘सूरसागर’ सार्थक होता है। इनका बाल-वर्णन बाल्यावस्था की चित्ताकर्षक झाँकियाँ प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के पदों में उल्लास, उत्कण्ठा, चिन्ता, ईर्ष्या आदि भावों की जो अभिव्यक्ति हुई है, वह बड़ी स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक एवं हृदयग्राही है। 'भ्रमरगीत’ में इनके विरह-वर्णन की विलक्षणता भी दर्शनीय है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में ‘गोपियों एवं उद्भव’ के संवाद के माध्यम से प्रेम, विरह, ज्ञान एवं भक्ति का जो अद्भुत भाव व्यक्त हुआ है, वह इनकी महान ‘काव्यात्मक प्रतिभा’ का परिचायक है । सूर ‘संयोग और विप्रलम्भ’ दोनों ही श्रृंगारों के चित्रण में सिद्धहस्त हैं। गहन दार्शनिक भावों को कोमल एवं सुकुमार भावनाओं के माध्यम से व्यक्त करना भक्त कवि सूरदास की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने ईश्वर के ‘सगुण रूप’ श्रीकृष्ण के प्रति सखा-भाव की भक्ति-भावना का निरूपण करते हुए, अपने काव्य में मानव हृदय की आन्तरिक कोमल भावनाओं का चित्रण किया है।
सूरदास
की भाषा
सूर की भाषा
में कहीं-कहीं अवधी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के प्रयोग भी मिलते हैं, परन्तु
भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। ब्रजभाषा में जो
निखार सूर के हाथों आया है वैसा निखार कदाचित कोई अन्य कवि नहीं दे सका। श्रीकृष्ण
की बाल लीलाओं का वर्णन करते समय जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का कृष्ण का चरित्र
तो किसी को भी ईर्ष्यालु बनाने की क्षमता रखता है। बाल-हठ, गोचारण,
वन से प्रत्यागमन, माखन चोरी आदि के पदों का
लालित्य सूर के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है।
सूरदास की शैली
सूर ने ‘मुक्तक
काव्य-शैली’ को अपनाया है। कथा वर्णन में ‘वर्णनात्मक शैली’ का प्रयोग हुआ है।
अलंकारों की दृष्टि से सूर के काव्य में ‘उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक,
रूपक, दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यास’ आदि
अलंकारों के प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुए हैं। छन्दों में ‘रोला, छप्पय, सवैया, घनाक्षरी’ आदि
प्रमुख हैं। भावविभोर और आत्मविस्मृत गोपियों के दही ले के स्थान पर 'कृष्ण ले' की पुकार लगाना, गोपियों
का तीर-कमान लिये वनों-उपवनों में 'पिक चातकों’ को बसेरा न
ले पाने के हेतु मारा-मारा फिरना, प्रेम की तल्लीनता के ऐसे
सजीव उदाहरण सूर-साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ हैं।
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