Monday, August 22, 2022

व्यतिरेकी विश्लेषण की उपयोगिता और उद्देश्य (Utility and purpose of Contrastive Anaylesis)

 

व्यतिरेकी विश्लेषण की उपयोगिता (Utility of Contrastive Anaylesis) :

व्यतिरेकी विश्लेषण का उपयोग मुख्यतः निम्न क्षेत्रों में होता है जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है –

Ø अन्य भाषा शिक्षण के लिए पाठ्य सामग्री निर्माण में उपयोगी ।

Ø शिक्षार्थी की शिक्षण समस्याओं के निदान में उपयोगी ।

Ø श्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा में निहित समानताओं और असमानताओं की तुलना करके पाठ्य बिन्दुओं का चयन करने में उपयोगी ।

Ø एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करने में उपयोगी ।

Ø शिक्षण विधियों का आविष्कार करने में उपयोगी ।

Ø त्रुटियों का निदान करने में उपयोगी ।     

व्यतिरेकी विश्लेषण का उद्देश्य (Utility of Contrastive Anaylesis) :

व्यतिरेकी विश्लेषण के मुख्य उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ. सूरजभान सिंह ने अपनी पुस्तक ‘अंग्रेजी हिंदी अनुवाद व्याकरण’ में निम्नलिखित तथ्यों को स्पष्ट किया है –

Ø दो भाषाओं के बीच असमान और अर्धसमान तत्वों का पता लगाना, जिससे भाषा सीखने या अनुवाद करने में उन स्थलों पर खास ध्यान दिया जा सकता है जहाँ असमान संरचनाओं के कारण त्रुटि या मातृभाषा व्याघात की संभावना अधिक होती है

Ø व्यतिरेकी विश्लेषण के परिणामों से अनुवादक श्रोत और लक्ष्य भाषा के उन संवेदनशील स्थलों का पहले से अनुमान कर सकता है जहाँ असमान संरचनाओं तथा नियमों के कारण अनुवादक मातृभाषा व्याघात या अन्य कारणों से गलती कर सकता है। इस प्रकार वह लक्ष्य भाषा की संरचना और शैली की स्वाभाविक प्रकृति को पहचान कर कृत्रिम और असहज अनुवाद से बच सकता है ।

Ø एम. जी. चतुर्वेदी के अनुसार मातृभाषा अथवा लक्ष्य भाषा व्याघात के विश्लेषण के लिए, दो भाषाओं की तथा उनकी संरचनाओं के सभी स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए, दोनों भाषाओं के समान, अर्धसमान तथा असमान प्रयोगों को पहचानने के लिए पाठ्यक्रम निर्माण के लिए, त्रुटि विश्लेषण के लिए और लक्ष्य भाषा शिक्षण के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रयोग होता है

व्यतिरेकी विश्लेषण के फलस्वरूप उसे एक से अधिक समानार्थी अभिव्यक्तियाँ उपलब्ध होती है, जिससे वह संदर्भ के अनुसार उपर्युक्त विकल्प का चयन कर सकता है और अनुवाद में मूल पाठ की सूक्ष्म अर्थ छटाओं को सुरक्षित रख सकता है।


Saturday, August 20, 2022

व्यतिरेकी विश्लेषण और इसकी परिभाषाएं (Contrastive Anaylesis & Definitions)

 

व्यतिरेकी विश्लेषण (Contrastive Anaylesis) :

व्यतिरेकी विश्लेषण अंग्रेजी के ‘Contrastive Anaylesis’ शब्द का हिंदी पर्याय है। सर्वप्रथम वूर्फ़ नामक विद्वान ने भाषाओँ की भिन्नताओं पर प्रकाश डालने वाले तुलनात्मक अध्ययन के लिए ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ शब्द का प्रयोग किया है । प्रत्येक भाषा किसी न किसी अन्य भाषा से जहाँ कुछ बिन्दुओं पर समानता रखती है वहीं उनमें कुछ संरचनात्मक असमानताएं भी अवश्य प्राप्त होती है। दो भाषाओं की संरचनात्मक व्यवस्था के मध्य प्राप्त असमान बिन्दुओं को उद्घाटित करने के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रयोग किया जाता है। व्यतिरेकी विश्लेषण का अध्ययन व्यतिरेकी भाषाविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। भाषाविज्ञान की दो शाखाएं होती हैं- 1. सैद्धांतिक भाषाविज्ञान 2. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान । व्यतिरेकी भाषाविज्ञान, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की एक शाखा है। व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का उदय द्वितीय विश्व युद्ध के समय सैनिकों को उन देशों की भाषाएँ सिखाने के उद्देश्य से हुआ था। व्यतिरेकी भाषाविज्ञान भाषा शिक्षण की व्यावहारिक पद्धति है। इसमें किसी भाषा युग्म के समानताओं और व्यतिरेकी के बारे में विश्लेषण करके भाषा को सुगम बनाने पर जोर दिया जाता है । अन्य भाषा शिक्षण की बढ़ती मांग ने ही व्यतिरेकी भाषाविज्ञान को जन्म दिया ।

व्यतिरेकी विश्लेषण की कुछ निम्न परिभाषाएं

"ध्वनि, लिपि, व्याकरण, शब्द, अर्थ, वाक्य और संस्कृत जैसे विभिन्न स्तरों पर दो भाषाओं की संरचनाओं की परस्पर तुलना कर उसमें समान और असमान तत्वों का विश्लेषण करना व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है।"                                                                                             - प्रो. सूरजभान सिंह

"दो या दो से अधिक भाषाओं के सभी स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन द्वारा समानताओं और असामनताओं के निकालने को व्यतिरेकी विश्लेषण कहते हैं।"                          - डॉ. भोलानाथ तिवारी

"भाषा विश्लेषण की यह तकनीकी, जिसके द्वारा भाषाओं में व्यतिरेकी इंगित किया जाता है, व्यक्तिरेकी विश्लेषण कहलाता है।"                                                   - डॉ. ललित मोहन बहुगुणा

"भाषा विश्लेषण में जहाँ दो भाषाओं में व्यतिरेकी/असमानताएं सूचित की जाती हैं, यह व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है।"                                                                  - शंकर बुंदेले

Thursday, August 18, 2022

गंट्री जरीब और मीट्रिक जरीब की पूरी जानकारी (Gantri Jarib & Metric jarib)

 

गंट्री जरीब (एकड़ प्रणाली जरीब) : यह जरीब जमीन के क्षेत्रफल को एकड़ में मापने पर आधरित है यह शाहजहानी जरीब के बाद प्रयोग में आने वाली जरीब है इस जरीब में 100 कड़ियाँ होती हैं, पूरे जरीब की लंबाई लगभग 20.1 मीटर होती है इसके कुछ निम्न पैमानों को नीचे देखिए -

1 कड़ी की लंबाई = 7.92 इंच = 20.15 सेंटीमीटर

1 गंट्री जरीब =100 कड़ी = 792 इंच = 2011.7 सेंटीमीट

1 गंट्री जरीब = 22 गज              [1 गज= 36 इंच  (3 फीट)]

1 गंट्री जरीब = 66 फीट             [1 फीट = 12 इंच ]

1 गंट्री जरीब = 44 हाथ             [1 हाथ = 18 इंच (डेढ़ फीट)]

1 गंट्री जरीब = 88 बित्ता           [1 बित्ता = 9 इंच]

1 गंट्री जरीब = 24 डेग             [1 डेग = 33 इंच]

1 गंट्री जरीब = 8 लठ्ठा/लट्ठा/लाठा [1 लठ्ठा = 99 इंच]

1 गंट्री जरीब = 20.1 मीटर       [1 मीटर = 39.37 इंच]

मीट्रिक जरीब (दाशमिक प्रणाली जरीब) : एकड़ के बाद वर्तमान समय में खतौनी में जमीन का क्षेत्रफल हेक्टेयर में दिया जा रहा है और वर्तमान समय में जमीन की नपाई/नापी इसी जरीब का प्रयोग करके किया जा रहा है इस जरीब में भी 100 कड़ियाँ होती हैं मगर इस जरीब की लंबाई पूर्ण रूप से 20 मीटर होती है, प्रत्येक कड़ी की लंबाई 20 सेंटीमीटर होती है इस जरीब के दोनों सिरों पर पकड़ने के लिए हैंडिल दिया रहता है, वह हैंडिल 20 मीटर का ही हिस्सा होता है इस जरीब में प्रत्येक 10 कड़ी के बाद एक बड़ा छल्ला लगा रहता है, जो 1, 2, 3, और 4, (जिनका मतलब होता है 1=10 कड़ी, 2=20 कड़ी, 3= 30 कड़ी, 4=40 कड़ी) के बाद एक बड़ा छल्ला लटका रहता है, वह बड़ा छल्ला जरीब के आधे (50 कड़ी) हिस्सा को प्रदर्शित करता है उसके बाद फिर प्रत्येक 10 कड़ी के बाद 4, 3, 2 और 1 के क्रम में छल्ले लटके रहते हैं (जिनका मतलब होता है 4= 60 कड़ी, 3= 70 कड़ी, 2= 80 कड़ी, 1=90 कड़ी)  नीचे दिए चित्र के माध्यम से इसे समझा जा सकता है- 


1 कड़ी की लंबाई = 7.88 इंच = 20 सेंटीमीटर

1 मीट्रिक जरीब =100 कड़ी = 788 इंच = 2000 सेंटीमीटर

1 मीट्रिक जरीब = 20 मीटर       [1 मीटर = 39.37 इंच]

ऊपर दिए पैमानों के बाद बाकी पैमानों को लगभग तौर पर गंट्री जरीब की तरह ही लिया जा सकता है

1 मीट्रिक जरीब = 22 गज              [1 गज= 36 इंच  (3 फीट)]

1 मीट्रिक जरीब = 66 फीट             [1 फीट = 12 इंच ]

1 मीट्रिक जरीब = 44 हाथ             [1 हाथ = 18 इंच (डेढ़ फीट)]

1 मीट्रिक जरीब = 88 बित्ता           [1 बित्ता = 9 इंच]

1 मीट्रिक जरीब = 24 डेग             [1 डेग = 33 इंच]

1 मीट्रिक जरीब = 8 लठ्ठा/लट्ठा/लाठा [1 लठ्ठा = 99 इंच]


Wednesday, August 17, 2022

भोजपुरी भाषा की उत्पत्ति/ भोजपुरी भाषा की लिपि (Origin of Bhojpuri Language/Bhojpuri language script)

 

भोजपुरी भाषा की उत्पत्ति मागधी अपभ्रंश से हुई है। यह बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। अर्द्ध मागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिंदी, शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी की उत्पत्ति हुई है। बता दें कि भोजपुरी भाषा का इतिहास 7वीं सदी से शुरू होता है। यह भाषा 1000 से अधिक साल पुरानी है। गुरु गोरख नाथ ने 1100 वर्ष में गोरख बानी लिखा था। संत कबीरदास 1398 का जन्मदिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है। मध्य काल में ‘भोजपुर’ नामक एक स्थान में मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए ‘भोजवंशी’ राजाओं ने एक गाँव बसाया था। इसे उन्होंने राजधानी बनाया और इसके ‘राजा भोज’ के कारण इस स्थान का नाम ‘भोजपुर’ पड़ गया। इसी नाम के कारण यहाँ बोले जाने वाली भाषा का नाम भी ‘भोजपुरी’ पड़ गया।

भोजपूरी को पहले ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न कैथी नामक एक ऐतिहासिक लिपि में लिखा जाता था। इसे "कयथी" या "कायस्थी", के नाम से भी जाना जाता है। यह देवनागरी लिपि से मिलती-जुलती लिपि है। सोलहवीं सदी में इसका बहुत अधिक उपयोग किया जाता था। मुग़लों के शासन काल के दौरान भी इसका काफी उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों ने इस लिपि का आधिकारिक रूप से बिहार के न्यायालयों में उपयोग किया। अंग्रेजों के समय से इसका उपयोग धीरे-धीरे कम होने लगा था। बाद में इस लिपि के स्थान में देवनागरी लिपि का उपयोग होने लगा।




एक यह भी मान्यता है कि भोजपुरी की उत्पत्ति संस्कृत से हुई, आचार्य हवलदार त्रिपाठी ‘सह्यदय’ लंबे शोध कार्य करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भोजपुरी की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है। उन्होंने अपने कोश-ग्रंथ “व्युत्पत्ति मूलक भोजपुरी की धातु और क्रियाएं” में केवल सात सौ इकसठ (761) धातुओं की खोज की है, जो ‘ढ़’ वर्ण तक विस्तारित हैं। इस ग्रंथ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सात सौ इकसठ (761) पदों की मूल धातु की वैज्ञानिक निर्माण प्रक्रिया में पाणिनि सूत्र का अक्षरशः पालन किया गया है। इस कोश-ग्रंथ में वर्णित विषय पर दृष्टिपात करने पर भोजपुरी और संस्कृत भाषा के बीच समानता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। दरअसल, भोजपुरी भाषा संस्कृत भाषा और संस्कृत की तरह वैज्ञानिक भाषा के काफी करीब है। भोजपुरी भाषा के मुहावरों और क्रियाओं का प्रयोग विषय को और स्पष्ट करता है। प्रामाणिकता की दृष्टि से संस्कृत व्याकरण को भी साथ-साथ प्रस्तुत किया गया। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि भोजपुरी भाषा की धातुओं और क्रियाओं की व्युत्पत्ति का स्रोत संस्कृत भाषा और इसके मानक व्याकरण से लिया गया है। देखा जाए तो हिंदी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है और हिंदी भाषा, भोजपुरी भाषा से काफी मिलती-जुलती है इसलिए यह मान्यता सही हो सकती है  

जरीब(chain) और जरीब के प्रकार की पूरी जानकारी ( Jarib & Types of Jarib)

 

जरीब (Jarib) / जंजीर / chain


अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग माप की जरीबें प्रयोग होती हैं। जरीब लम्बाई मापने की एक इकाई होती है। कड़ियों का समूह (छोटे-छोटे लोहे के बने हुए कड़ियों का समूह जिसके दोनों छोर पर पकड़ने के लिए हैंडिल लगे रहते हैं जरीब कहलाती है।

जरीब का चित्र .........



मुख्य रूप से जरीब तीन प्रकार की होती है

(1) शाहजहानी जरीब

पूरी जरीब = 55 गज

आधी जरीब = 27.5 गज

पूरी जरीब * पूरी जरीब = 1 बीघा (पक्का/मानक)

55 गज * 55 गज = 3025 वर्ग गज = 2529 वर्ग मीटर =27225 वर्ग फीट = लट्ठा

(2) गंट्री जरीब (एकड़ प्रणाली जरीब)

 एक कड़ी = 7.92 इंच

1 गट्टा = 10 कड़ी = 2.2 गज

1 जरीब = 22 गज = 66 फीट = 10 गट्टा = 100 कड़ी = 8 लठ्ठा

(3) मीट्रिक जरीब (दाशमिक प्रणाली जरीब)

एक कड़ी = 20 सेंटीमीटर

1 गट्टा = 2 मीटर

एक जरीब = 20 मीटर = 1 गट्टा = 100 कड़ी = 8 लठ्ठा 

Sunday, August 14, 2022

भोजपुरी भाषा का इतिहास

 

भोजपुरी हिंदी भाषा की एक बोली है भारत देश के उत्तर प्रदेश और बिहार के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी भोजपुरी बोली जाती है इसका विस्तार उत्तर प्रदेश और बिहार से अन्य प्रदेशों में जाने वाले लोगों से है भोजपुरी भाषाई परिवार के स्तर पर एक आर्य भाषा है और यह मुख्य रूप से पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली जाती है, तथा इसके साथ-साथ उत्तरी झारखंड के क्षेत्रों में भी बोली जाती है भोजपुरी भाषा अपनी शब्दावली के लिए मुख्य रूप से संस्कृत और हिंदी भाषा पर निर्भर है और इसके साथ-साथ यह उर्दू भाषा के कुछ शब्दों को भी ग्रहण की है

बिहारी बोलियों का विस्तृत व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन डॉक्टर ग्रियर्सन ने ‘सेवेनग्रामर्स आफ दी डायरेक्टस एंड सब डायरेक्ट्स ऑफ द बिहारी लैंग्वेज’ के रूप में उपस्थित किया बिहारी बोलियों का यह सर्वप्रथम विस्तृत अध्ययन हैये सात व्याकरण सन 1883 ई० से 1887 ई० तक प्रकाशित हुए जो बिहार के सभी प्रमुख बोलियों तथा उपबोलियों का अध्ययन प्रस्तुत करते हैं

इस भाषा को बोलने वाले लोगों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण यह है कि ब्रिटिश शासन के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाए गए मजदूर हैं जिनके वंशज जहां उनके पूर्वज गए थे वहीं बस गए। इनमें सूरीनाम, गुवाना, त्रिनिदादटोबेगो और फिजी आदि देश प्रमुख हैं बिहारी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सर्वप्रथम एच.बीम्स पीपर ने प्रारंभ किया था इन्होंने भोजपुरी के संबंध में सर्वप्रथम एक निबंध ‘नोट्स ऑन दी भोजपुरी डायलेक्ट आफ हिंदी स्पोकन इन वेस्टर्न बिहार’ नामक शीर्षक से लिखा था जो रॉयल एशियाटिक सोसाइटी लंदन की पत्रिका भाग-3 पृष्ठ-483 से 508 में सन 1868 ई० में प्रकाशित हुआ

भोजपुरी पूर्वी अथवा मागधी परिवार की सबसे पश्चिमी बोली है ग्रियर्सन ने पश्चिमी मागधी को बिहारी के नाम से अभिहित किया है बिहारी से ग्रियर्सन का उस एक भाषा से तात्पर्य है जिसकी मगही, मैथिली तथा भोजपुरी 3 बोलियां हैं भाषाविज्ञान की दृष्टि से ग्रियर्सन का कथन सत्य है किंतु इन तीनों बोलियों में पारंपरिक अंतर भी है मैथिली ‘अछ’ या ‘छ’ धातु का प्रयोग भोजपुरी तथा मगही में नहीं है इसी प्रकार भोजपुरी क्रियाओं के रूप में मैथिली तथा मगही क्रियाओं के रूप की जटिलता का सापेक्षित दृष्टि से अभाव है

प्रख्यात विद्वान और भाषाविद डॉ. ग्रियर्सन ने भोजपुरी भाषा के संबंध में लिखा है ‘भोजपुरी एक बलिष्ठ जाति की व्यावहारिक भाषा है’ जो परिस्थितियों के अनुसार अपने को परिवर्तित करके संपूर्ण भारत पर अपना प्रभाव स्थापित किया है पूर्वी बंगाल के जमीदार अपने असमियों को नियंत्रण में रखने के लिए भोजपुरी सिपाहियों का दल रखते हैं और वहां वह दरबान कहलाते हैं

‘भोजपुरी भाषा सर्वजन सुलभ सुविधाजनक व्यापारिक भाषा है’ इसमें व्याकरण संबंधी जटिलताओं का नितांत अभाव है

Tuesday, August 9, 2022

तुलसीदास की जीवनी, रचनाएँ, शैली, भाषा, रस, छंद और अलंकार (Biography of Tulsidas, books/Texts, Language, Style, Ras, Chhand & Figures of Speech)

 

तुलसीदास का जीवनकाल

गोस्वामी तुलसीदास (जीवनकाल सन् 1532-1623 ई०) गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक नहीं प्राप्त हो सकी है। डॉ० नगेन्द्र द्वारा लिखित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास में उनके सन्दर्भ में जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं - बेनीमाधव प्रणीत ‘मूल गोसाईपरित’ तथा महात्मा रघुवरदास रचित ‘तुलसीचरित’ में तुलसीदासजी का जन्म संवत् 1554 वि० (सन् 1497) दिया गया है। बेनीमाधवदास की रचना में गोस्वामीजी की जन्म तिथि शुक्ल सप्तमी का भी उल्लेख है। इस संबंध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है-

पंद्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धर्यो सरीर ।।

'शिवसिंह सरोज' में इनका जन्म संवत् 1583 वि० (सन् 1526 ई०) बताया गया है। पं० रामगुलाम द्विवेदी ने इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532) स्वीकार किया है। सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा भी इसी जन्म संवत् को मान्यता दी गई है। अन्तःसाक्ष्य के आधार पर इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532 ई०) युक्तियुक्त प्रतीत होता है। इनके जन्म स्थान के संबंध में भी पर्याप्त मतभेद हैं। मूल गोसाईचरित 'एवं' ‘तुलसीचरित’ में इनका ‘जन्मस्थान राजापुर’ बताया गया है। शिवसिंह सेंगर और रामगुलाम द्विवेदी भी राजापुर को गोस्वामीजी का जन्म स्थान मानते हैं। कुछ विद्वान् तुलसीदास द्वारा रचित पंक्ति मैं पुनि निज गुरु सन सुनि, कथा सो सुकरखेत; के आधार पर इनका जन्मस्थल ‘सोरो’ नामक स्थान को मानते हैं, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि विद्वानों का मत है कि ‘सूकरखेत’ को भ्रमवश ‘सोरो’ मान लिया गया है। 'सूकरखेत’ गोंडा जिले में सरयू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है। मनश्रुतियों के आधार पर यह माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के ‘पिता का नाम आत्माराम दुबे’ एवं माता का नाम ‘ठुलसी’ था। कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। 'कवितावली’ के ‘मातु पिता जग जाइ तज्यों विधिहू न लिख्यो कछु भाल भला है’ अथवा ‘बारे तै ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, चाहत हो चारि फल चारि ही चनक को’ आदि अन्तःसाक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि तुलसीदास का बचपन अनेकानेक आपदाओं के बीच व्यतीत हुआ है। इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त ‘बाबा नरहरिदास’ ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इन्हीं की कृपा से तुलसीदासजी वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि में निष्णात हो गए। इनका विवाह पं० दीनबन्धु पाठक की पुत्री 'रत्नावली' से हुआ था। कहा जाता है कि ये अपनी रूपवती पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त थे। इस पर इनकी पत्नी ने एक बार इनकी भर्त्सना करते हुए कहा- ‘लाज न आयी आपको दौरे आये साथ। इससे इनकी भावधारा प्रभु की ओर उन्मुख हो गई। संवत् 1680 (सन् 1623 ई०) में ‘काशी’ में इनका निधन हो गया। इस संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है ‘संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ।। इनकी निधन-तिथि के विषय में अधिकांश विद्वान् "श्रावण शुक्ला सप्तमी के स्थान पर" श्रावण शुक्ला तीज शनि" मानते हैं।

तुलसीदास की रचनाएँ / ग्रंथ

गोस्वामी तुलसीदास 'श्रीरामचरितमानस', 'विनयपत्रिका', 'कवितावली', 'गीतावली', 'श्रीकृष्णगीतावली', 'दोहावली', 'रामललानहरू', ‘जानकी मंगल', 'पार्वती-मंगल', 'वैराग्य-संदीपनी', 'बरवै रामायण', 'रामाज्ञा प्रश्नावली', 'हनुमानबाहुक’ तथा ‘रामललानहछू’ आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

 

तुलसीदास की भाषा

तुलसी ने ‘ब्रज एवं अवधी’ दोनों ही भाषाओं में रचनाएँ की। उनका महाकाव्य 'श्रीरामचरितमानस’ ‘अवधी भाषा’ में लिखा गया है। ‘विनयपत्रिका', 'गीतावली' और 'कवितावली’ में ‘ब्रजभाषा’ का प्रयोग हुआ है। ‘मुहावरों और लोकोक्तियों’ के प्रयोग से भाषा के प्रभाव में विशेष वृद्धि हुई है।

 

तुलसीदास की शैली

तुलसी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है। 'श्रीरामचरितमानस' में ‘प्रबंध शैली’, 'विनयपत्रिका' में ‘मुक्तक शैली’ तथा ‘दोहावली’ में कबीर के समान प्रयुक्त की गई ‘साखी शैली’ स्पष्ट देखी जा सकती है। यत्र-तत्र अन्य शैलियों का प्रयोग भी किया गया है।

                                                                           

तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त ‘रस, छंद और अलंकार’

तुलसी ने चौपाई, दोहा, सोरठा, कवित, सवैया, दरवै, छप्पय आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है।

तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग सहज स्वाभाविक रूप में किया गया है। इन्होंने अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, अनन्वय, श्लेष, सन्देह, असंगति एवं दृष्टान्त अलंकारों के प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किए हैं। तुलसी के काव्य में विभिन्न रसों का सुंदर परिपाक हुआ है। यद्यपि उनके काव्य में शान्त रस प्रमुख हैं, परन्तु शृंगार रस की अद्भुत छटा भी दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त करुण, रौद्र, बीभत्स, भयानक, वीर, अद्भुत एवं हास्य रसों का भी प्रयोग किया गया है। तुलसी का काव्य गेय है। इसमें संगीतात्मकता के गुण सर्वत्र विद्यमान है। वास्तव में तुलसी हिन्दी साहित्य की महान विभूति हैं। उन्होंने रामभक्ति की मन्दाकिनी प्रवाहित करके जन-जन का जीवन कृतार्थ कर दिया।

Sunday, August 7, 2022

वाक्यार्थ विश्लेषण (अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद) (Abhihitanvayavada & Anvitabhidhanvada)

 

पद और वाक्य (अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद)

पद और वाक्य के सापेक्ष महत्त्व पर दार्शनिकों में पर्याप्त विवाद है। इस विषय पर न्यायदर्शन, मीमांसादर्शन और व्याकरण-दर्शन में बहुत विस्तार से विचार हुआ है। मीमांसा के दो प्रमुख आचार्यों ने पद और वाक्य के सापेक्ष महत्त्व पर दो विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं -

(1) अभिहितान्वयवाद - इस वाद के प्रवर्तक ‘आचार्य कुमारिल भट्ट’ हैं। इनका मत 'अभिहितान्वयवाद' कहा जाता है। इसका अर्थ है - 'अभिहितानां पदार्थानाम् अन्वयः' पद अपने अर्थ को कहते हैं और उनका वाक्य में अन्वय हो जाता है। इस अन्वय से एक विशिष्ट प्रकार का वाक्यार्थ निकलता है। इस वाद को 'पद-वाद' कह सकते हैं। इस वाद में पदों का महत्त्व है और पद-समूह ही वाक्य है। पद के अतिरिक्त वाक्य का कोई महत्त्व नहीं है।

(2) अन्विताभिधानवाद - इस वाद के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट के शिष्य ‘आचार्य प्रभाकर गुरु’ हैं। इनका नाम ‘प्रभाकर’ है। योग्यता में अपने गुरु कुमारिल से भी अधिक बढ़े हुए थे, अतः अपने गुरु का भी गुरु हो जाने के कारण इन्हें 'गुरु' कहा जाने लगा। इनका मत 'अन्विताभिधानवाद' कहा जाता है। इसका अर्थ 'अन्वितानां पदार्थानाम् अभिधानम्' वाक्य में पदों के अर्थ समन्वित रूप से विद्यमान रहते हैं।

वाक्य को तोड़ने से पृथक-पृथक पदों का अर्थ ज्ञात होता है। वाक्य से पदों को निकालने को 'अपोद्धार' (Analysis) कहते हैं। इस वाद में वाक्य को महत्त्व दिया गया है, अतः इसे 'वाक्यवाद' भी कह सकते हैं। 'अन्विताभिधानवाद' के अनुसार पदों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वे वाक्य के अवयव हैं और वाक्य विश्लेषण से उनका अर्थ निकलता है। इस मत के अनुसार 'वाक्य ही भाषा की सार्थक इकाई है’। आधुनिक भाषाविज्ञान भी इस मत का पोषक है कि 'Sentence is a significant unit' (वाक्य ही सार्थक इकाई है) आचार्य भर्तृहरि ने ‘वाक्यपदीय’ में इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है ‘पदों में वर्णों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और न वर्णों में अवयवों की। वाक्य के अतिरिक्त पदों की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।) विचार करने से ज्ञात होता है कि 'वाक्यवाद' ही ग्राह्य मत है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है। 'अंगों का समूह शरीर है' या 'शरीर के अवयव अंग है'। विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि हाथ, पाँव, आँख, नाक आदि को मिलाकर शरीर नहीं बना है अपितु ये सभी अंग हमारे शरीर के अवयव हैं। इसी प्रकार भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है । मन में विचार या भाव समन्वित रूप में वाक्य के रूप में उदय होते हैं। उन वाक्यों को धारावाहिक रूप में हम उच्चारण द्वारा प्रकट करते हैं। विचार संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि पदों के रूप में उदय नहीं होते हैं, अतः वाक्य की स्वाभाविक एवं स्वतन्त्र सत्ता है। सामान्य जन को सिखाने के लिए वाक्य-विश्लेषण (अपोद्धार) द्वारा नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात के रूप में वाक्य-विश्लेषण करके पद बनाए जाते हैं और उनका अर्थ निर्धारित किया जाता है। यदि चिन्तन पदों के रूप में होगा तो विचारों का प्रवाह ही नहीं बनेगा। वाक्य-प्रयोग वस्तुतः एक जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है । वाक्य-प्रयोग का मनोवैज्ञानिक क्रम यह है - (1) चिन्तन - अपने अभीष्ट अर्थ का विचार करना, (2) चयन - उपयुक्त शब्दों को चुनना, (3) भाषिक गठन - व्याकरण के अनुरूप उन शब्दों को क्रमबद्ध लगाना, (4) उच्चारण - उच्चारण के द्वारा वाक्य रूप में उन्हें प्रकट करना । ये चारों चीजें बहुत सुसंबद्ध रूप में चलनी चाहिएँ, तभी भाषण सुव्यवस्थित होगा। चिन्तन और उच्चारण में समरूपता न होने पर अव्यवस्था होगी। चिन्तन शिथिल होने पर अटकना पड़ेगा, अधिक तीव्र होने पर उच्चारण की गति साथ नहीं देगी। उच्चारण की गति तेज करने पर भाषा अस्पष्ट हो जाएगीर प्रक्षेत्र क नहीं होगा ।


संदर्भ -

इन दोनों वादों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें लेखक - कृत अर्थ - विज्ञान और व्याकरण-दर्शन , अध्याय 8(८) पृष्ठ 327(३२७) से 344(३४४) तक । 


Saturday, August 6, 2022

सूरदास की जीवनी, रचनाएँ/ग्रंथ, भाषा, शैली (Biography of Surdas, books/Texts, Language, Style)


सूरदास का जीवनकाल 

सूरदास (जीवनकाल सन् 1478-1583 ई) सूर के जन्म स्थान एवं जन्म-तिथि के विषय में बहुत मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म वैशाख सुदी संवत् 1535 दि० (सन् 1478) में रुनकता नामक ग्राम के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। कुछ विद्वान सीही नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत था। सूरदासजी जन्मान्य थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। कुछ लोगों का मत हैं कि प्रकृति तथा बाल-मनोवृत्तियों एवं मानव स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध कदापि नहीं कर सकता। सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य बन गए और उनके साथ ही मथुरा के गऊघाट पर श्रीनाथजी के मन्दिर में रहने लगे। पहले ये विनय के पद गाया करते थे, किन्तु वल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने पर कृष्ण लीला का गान करने लगे। सूर नित्य पद बनाकर उसे इकतारे पर गाकर भगवान की स्तुति करते थे। सूरदासजी की मृत्यु संवत् 1640 वि० (सन् 1583 ई०) में हुई थी।



सूरदास की रचनाएँ / ग्रंथ

'नागरी प्रचारिणी सभा’, ‘काशी की खोज’ तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर सूरदास के ग्रन्थ की संख्या 25 मानी जाती है, किन्तु इनके तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं -

सूरसागर - सूरसागर एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रामाणिक माना है। इसके सवा लाख में से लगभग 10 हजार पद ही उपलब्ध हो पाए हैं। 'सूरसागर’ पर ‘श्रीमद्भागवत’ का प्रभाव है। सम्पूर्ण सूरसागर एक ‘गीतिकाव्य’ है। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।

सूरसारावली - यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किन्तु कथावस्तु, भाव, भाषा, शैली और रचना की दृष्टि से निसंदेह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है। इसमें 1107 पद हैं। इसमें कृष्ण की संयोग लीलाओं का अत्यंत मनोरम वर्णन किया गया है।  

साहित्यलहरी - ‘साहित्यलहरी’ में सूरदास के 118 दृष्टकूट-पदों का संग्रह है। ‘साहित्यलहरी’ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाल-लीला का वर्णन हुआ है तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत’ की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘सूरदास’ द्वारा रचित 'गोवर्धन-लीला’, 'नाग-लीला', 'पद संग्रह', ‘सूर-पचीसी’ आदि ग्रन्थ भी प्रकाश में आए हैं, परन्तु सूर की ख्याति ‘सूरसागर’ से ही हुई है।

इन्होंने अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीला के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। इनका काव्य 'श्रीमद्भागवत' से अत्यधिक प्रभावित रहा है, किन्तु उसमें इनकी विलक्षण मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर सूर ने जो रस का सागर उमड़ाया है, उसी से इनकी रचना का नाम ‘सूरसागर’ सार्थक होता है। इनका बाल-वर्णन बाल्यावस्था की चित्ताकर्षक झाँकियाँ प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के पदों में उल्लास, उत्कण्ठा, चिन्ता, ईर्ष्या आदि भावों की जो अभिव्यक्ति हुई है, वह बड़ी स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक एवं हृदयग्राही है। 'भ्रमरगीत’ में इनके विरह-वर्णन की विलक्षणता भी दर्शनीय है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में ‘गोपियों एवं उद्भव’ के संवाद के माध्यम से प्रेम, विरह, ज्ञान एवं भक्ति का जो अद्भुत भाव व्यक्त हुआ है, वह इनकी महान ‘काव्यात्मक प्रतिभा’ का परिचायक है । सूर ‘संयोग और विप्रलम्भ’ दोनों ही श्रृंगारों के चित्रण में सिद्धहस्त हैं। गहन दार्शनिक भावों को कोमल एवं सुकुमार भावनाओं के माध्यम से व्यक्त करना भक्त कवि सूरदास की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने ईश्वर के ‘सगुण रूप’ श्रीकृष्ण के प्रति सखा-भाव की भक्ति-भावना का निरूपण करते हुए, अपने काव्य में मानव हृदय की आन्तरिक कोमल भावनाओं का चित्रण किया है।

सूरदास की भाषा

सूर की भाषा में कहीं-कहीं अवधी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के प्रयोग भी मिलते हैं, परन्तु भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। ब्रजभाषा में जो निखार सूर के हाथों आया है वैसा निखार कदाचित कोई अन्य कवि नहीं दे सका। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करते समय जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का कृष्ण का चरित्र तो किसी को भी ईर्ष्यालु बनाने की क्षमता रखता है। बाल-हठ, गोचारण, वन से प्रत्यागमन, माखन चोरी आदि के पदों का लालित्य सूर के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है।

 

सूरदास की शैली

सूर ने ‘मुक्तक काव्य-शैली’ को अपनाया है। कथा वर्णन में ‘वर्णनात्मक शैली’ का प्रयोग हुआ है। अलंकारों की दृष्टि से सूर के काव्य में ‘उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, रूपक, दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यास’ आदि अलंकारों के प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुए हैं। छन्दों में ‘रोला, छप्पय, सवैया, घनाक्षरी’ आदि प्रमुख हैं। भावविभोर और आत्मविस्मृत गोपियों के दही ले के स्थान पर 'कृष्ण ले' की पुकार लगाना, गोपियों का तीर-कमान लिये वनों-उपवनों में 'पिक चातकों’ को बसेरा न ले पाने के हेतु मारा-मारा फिरना, प्रेम की तल्लीनता के ऐसे सजीव उदाहरण सूर-साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ हैं।