“हठ कर
बैठा चाँद
एक दिन, माता
से यह बोला,
सिलवा
दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन
चलती हवा रात-भर, जाड़े
से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता
हूँ।
आसमान
का सफ़र और
यह मौसम है जाड़े का,
न
हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का।
बच्चे
की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करे भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े
की तो बात ठीक है, पर
मैं तो डरती हूँ,
एक
नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी
एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा
किसी दिन हो जाता है, और
किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता
रोज किसी
दिन ऐसा भी करता है,
नहीं
किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब
तू यही बता, नाप
तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सील
दें एक झिंगोला, जो हर रोज बदन में आए।’’
लेखक- रामधारी सिंह 'दिनकर'
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