Monday, July 14, 2025

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

 

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

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खाटी डकइत भगवान हो गयल

लतमरुआ परधान हो गयल

हमरे गांव के भुच्चड़ गदहा

बिन पढ़ले कपतान हो गयल 

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


आपन इज्जत अपने हाथे

बहुत मरायल लाते-लाते 

घुन पिसाइल गेहूं के साथे

बजर छिनरा सिरिमान हो गयल

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


पूत जनमले लोलक लइया

धान पछोरे निकले पइया

रोवे बहिन अ बाबू मइया

लड़िका त बेईमान हो गयल

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


आगे नाथ न पीछे पगहा

खाय-मोटाय के भइल गदहा

कान के कच्चा मुंह के पदहा

चुगुलहवा दरबान हो गयल

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


चोर-चोर मौसेरा भाई

घर बेचिके खाय मलाई

बाप ओझा अ डाइन माई 

लोकतंत्र त इहां जइसे

बिन मालिक दुकान हो गयल 

जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


पेट भयल बा बहुते भारी

खात-खात सब के हिसदारी

उलटे घुमि-घुमि देत बा गारी

आन्हर कानून बिधान हो गयल

 जबसे राजा बनल भकचोन्हरा

कउआ से दीवान हो गयल।


     --©राम बचन यादव

          25/07/2023

Wednesday, March 13, 2024

महिलाओं में मासिक धर्म का असल कारण

 ●महिलाओं में मासिक धर्म का असल कारण●

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क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चा पैदा करने में काम तो सिर्फ एक शुक्राणु आता है, तो फिर आदमी एक बार में करोड़ों स्पर्म खामखाह क्यों रिलीज करता है? इसका एक बेहद वाजिब कारण है।

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एक स्पर्म महिला के लिए “बाहरी चीज” है और बाहरी चीजों को देख शरीर की रक्षा-प्रणाली का एक ही काम होता है – उन बाहरों तत्वों का खात्मा। पर बाहरी चीजें करोड़ों की संख्या में हों, तो संभावना बन जाती है कि गिरते-पड़ते उनमें से कोई तो अंडाणु तक पहुँच कर निषेचन कर पायेगा।

अर्थात – आज तक आप जो “सबसे फिट – सबसे बेहतर स्पर्म ही जीतता है” की थ्योरी सुनते आये हैं, वो एक बोगस बात है। असलियत बस “प्रोबबिलिटी” की है, यानी जिसका दांव लगा, वो जीता!

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मानव शिशुओं की प्लेसेंटा सृष्टि ने कुछ ऐसी विकसित की है कि वह (प्लेसेंटा) गर्भाशय की नली को पार कर सीधे माँ के ब्लड-सिस्टम को हाईजैक कर लेती है। एक बार गर्भ धारण हो गया, फिर शिशु अपनी मनमर्जी से माँ से पोषक पदार्थ खींचता है और माँ का अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। अब चूँकि शिशु टेक्निकली एक “बाहरी चीज” है, इसलिए उसे नुकसान न पहुँचे, इसलिए प्रेगनेंसी के दौरान माँ के शरीर की रक्षा-प्रणाली एक तरह से शट-डाउन हो जाती है और माँ 9 महीने तक विभिन्न शारीरिक-मानसिक मनोविकारों को सहते हुए शिशु को अपने खून से सींचती रहती है।

प्लेसेंटा के शरीर से सीधे संपर्क के कारण ऐसी प्रेगनेंसी टर्मिनेट हो जाना भी एक चुनौती है और रक्तस्त्राव में जान भी जा सकती है। इसलिए यह बेहद आवश्यक हो जाता है कि अगर प्रेगनेंसी हो, तो स्वस्थ भ्रूण की हो, अथवा न हो।

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अब आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अस्तित्व में आने वाले 10 में से 8 भ्रूण डिफेक्टिव होते हैं। अर्थात निषेचन के बाद अस्तित्व में आई पहली कोशिका से अन्य कोशिकाएं बनने के दौरान वे अपने क्रोमोसोम (डीएनए अणु) की ठीक से नकल नहीं कर पाते, और इस तरह वे एक तरह से विकृत डीएनए वाले भ्रूण बन जाते हैं। विकृत भ्रूण से प्रेगनेंसी न हो, इसलिए महिला के गर्भाशय पर पायी जाने वाली एक परत (एंड्रोमिटियम) में कुछ ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो प्लेसेंटा बनने से पूर्व भ्रूण के स्वास्थ्य का जायजा लेती है। अगर गड़बड़ दिखी, तो एंड्रोमिटियम उत्सर्जित होकर बाहर निकल जाती है – विकृत भ्रूण को अपने साथ लेकर! इसी घटना को हिंदी में “मासिक धर्म” और अंग्रेजी में “मेंसुरेशन” कहते है।

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ये भी अचरज की बात है कि प्रकृति में सिर्फ मनुष्य, चिम्पेंजी और छछुंदर-चमगादड़ की एकाध प्रजातियाँ हैं, जिनके मासिक धर्म के दौरान रक्तस्राव होता है। बाकी सभी मैमल्स जीव एंड्रोमिटियम को शरीर से निकालने की बजाय अवशोषित करके रीसायकल कर लेते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दूसरे जानवर अपनी इच्छा से जब चाहें, प्रेगनेंसी को अबो्र्ट कर सकते हैं। इंसानों में यह सुविधा नहीं है इसलिए कमजोर भ्रूण की भनक लगते ही एंड्रोमिटियम का शरीर से बाहर निकल जाना ही ज्यादा सुरक्षित है। 

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कई लोग कह सकते हैं कि जब प्रेग्नेंसी न हो, तो भी हर महीने एंड्रोमिटियम मासिक धर्म के रूप में बाहर निकले, फिर हर महीने नयी बने, इसमें क्या तुक है? भाई, एवोल्यूशन को तुकबंदी से कुछ लेना-देना नहीं है। चूँकि गर्भधारण का काल सीमित है, इसलिए एंड्रोमिटियम को हमेशा बनाये रखने की बजाय रिलीज करके दोबारा बनाने का सौदा “ऊर्जा खर्च करने के मानक पर” एवोल्यूशन को ज्यादा मुफीद लगा। जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ – एवोल्यूशन एक बेहद मूर्खतापूर्ण प्रक्रिया है। इसे मासिक के दौरान होने वाली समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं। ये तो बस “कम से कम ऊर्जा खर्च कर” कामचलाऊ चीजें उत्पन्न करना जानता है। 100% असरदार ये कभी नहीं होता नहीं तो इतनी मशक्कत के बाद भी दुनिया में तमाम डिसऑर्डर से पीड़ित शिशु क्यूँ ही जन्म लेते।

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खैर, आज से बमुश्किल कुछ दशक से पहले पूरी कायनात में किसी एक बंदे तक को अंदाजा नहीं था कि मासिक आखिर होता ही क्यों है? श्योर, प्राचीन लोगों को यह तो पता था कि मासिक के बाद प्रयास करने से संतान होती है, पर इसके लिए रक्त निकलने की बाध्यता क्यों, इसका गुमान एक भी व्यक्ति को न था। इसलिए आप कोई भी सभ्यता, कोई भी पंथ उठा कर देख लें – किसी ने इसका सम्बन्ध किसी प्राचीन शाप से जोड़ा, किसी ने आसुरी शक्तियों से, किसी ने जादू-टोने तो किसी ने इसे औरतों पर दैवीय प्रकोपों की संज्ञा दी।

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क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हजारों साल जंगल में खूंखार जानवरों के बीच रहते हुए रक्तस्राव होना साक्षात मृत्युदूतों को आमंत्रण देने सरीखा होता था? कितना जोखिम भरा कृत्य है यह... 

सिर्फ इसलिए... ताकि जितना हो सके, श्रेष्ठ शिशु ही जन्म लें – ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था के लिए एक स्त्री हर महीने शारीरिक पीड़ा सहती है, अपना सुख-चैन त्यागती है, प्रेगनेंसी के दौरान अपना जीवन दांव पर लगाती है, हर माह मासिक धर्म से गुजरती है। उसी मासिक धर्म को मनुष्यों का एक बड़ा वर्ग सहस्त्राब्दियों तक “देवताओं का शाप” होने की संज्ञा देता रहा।

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क्या इस दुनिया में वाकई में कुछ शापित है, सिवाय किसी इंसान की दुष्ट बुद्धि के?

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-विजय सिंह ठकुराय

Friday, March 8, 2024

दिन पुरानका आई ना, बचपन फेर भेटाई ना

दिन पुरानका आई ना,

बचपन फेर भेटाई ना.


बीत गइल उ सोना रहे,

ये चाँदी से बदलाई ना.


सर संघतीया सभे छुटल,

होई कबो भरपाई ना.


बात बात में डीह बाबा के,

किरिया केहु खाई ना.


सोहर,झूमर,झारी,चइता,

नवका लोगवा गाई ना.


होई बीयाह बस नामे के,

केहू लोढ़ा से परीछाई ना.


आपन गावँ, आपन लोग,

इ टीस हिया से जाई ना.


शहर में केतनो रह लीं,

मन बाकिर अघाई ना.


-नूरैन अन्सारी

Tuesday, July 18, 2023

एक नया इतिहास लिखेंगे

 मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे ।

हम अपने इस कालखण्ड का एक नया इतिहास लिखेंगे ।


सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,

उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे ।


प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके,

ये 'ओशो' के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे ।


एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से,

तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा को ख़ास लिखेंगे ।


इनके कुत्सित सम्बन्धों से पाठक का क्या लेना-देना,

लेकिन ये तो अड़े हैं ज़िद पे अपना भोग-विलास लिखेंगे। 

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............ (अदम गोंड़वी जी।)

Sunday, May 14, 2023

माॅं जब हंसती है ( When mother laugh)

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माॅं जब हंसती है

माॅं जब हंसती है तो 

हंसती हैं कलियां 

गांव की गलियां 

हंसते हैं फूल 

खेत-खलिहान, हवा और उपवन

प्रकृति हंसती है!


माॅं जब हंसती है तो

हंसती हैं कलाएं

जीवन की आशाएं 

हंसते हैं सपनें 

ताज़े भाव-विचार और नेह के धागे

भाषा हंसती है!


माॅं जब हंसती है तो 

हंसते हैं सागर 

पानी भरी गागर 

हंसते हैं बादल

पहाड़, जंगल, नदियां और झरनें 

धरती हंसती है 


माॅं जब हंसती है तो 

हंसते हैं तारे 

नदी के किनारे

हंसते हैं कण-कण 

चांद, सूरज, ग्रह और नक्षत्र

ब्रह्मांड हंसता है!


  --© राम बचन यादव

         14/05/2023


वीडियो लिंक👉https://youtu.be/SXvOQga0HEQ




Wednesday, February 22, 2023

बना बावला सूंघ रहा हूं, मैं अपने पुरखों की माटी

 नदी किनारे, सागर तीरे,

पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी।

बना बावला सूंघ रहा हूं,

मैं अपने पुरखों की माटी।।



सिंधु, जहां सैंधव टापों के,

गहरे बहुत निशान बने थे।

हाय खुरों से कौन कटा था,

बाबा मेरे किसान बने थे।।


ग्रीक बसाया, मिस्र बसाया,

दिया मर्तबा इटली को।

मगध बसा था लौह के ऊपर,

मरे पुरनिया खानों में।।


कहां हड़प्पा, कहां सवाना,

कहां वोल्गा, मिसीसिपी।

मरी टेम्स में डूब औरतें,

भूखी, प्यासी, लदी-फदी।।


वहां कापुआ के महलों के,

नीचे खून गुलामों के।

बहती है एक धार लहू की,

अरबी तेल खदानों में।।


कज्जाकों की बहुत लड़कियां,

भाग गयी मंगोलों पर।

डूबा चाइना यांगटिसी में,

लटका हुआ दिवालों से।।


पत्थर ढोता रहा पीठ पर,

तिब्बत दलाई लामा का।

वियतनाम में रेड इंडियन,

बम बंधवाएं पेटों पे।।


विश्वपयुद्ध आस्ट्रिया का कुत्ता,

जाकर मरा सर्बिया में।

याद है बसना उन सर्बों का

डेन्यूब नदी के तीरे पर।।


रही रौंदती रोमन फौजें

सदियों जिनके सीनों को।

डूबी आबादी शहंशाह के एक

ताज के मोती में।।


किस्से कहती रही पुरखिनें,

अनुपम राजकुमारी की।

धंसी लश्क रें, गाएं, भैंसें,

भेड़ बकरियां दलदल में।।


कौन लिखेगा इब्नबतूता

या फिरदौसी गजलों में।

खून न सूखा कशाघात का,

घाव न पूजा कोरों का।।


अरे वाह रे ब्यूसीफेलस,

चेतक बेदुल घोड़ो का।

जुल्म न होता, जलन न होती, 

जोत न जगती, क्रांति न होती।

बिना क्रांति के खुले खजाना,

कहीं कभी भी शांति न होती।


©रमाशंकर यादव 'विद्रोही' | कॉमरेड विद्रोही




Saturday, February 11, 2023

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

 



तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं 

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं 


मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ 

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं 


तिरी ज़बान है झूटी जम्हूरियत की तरह 

तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं 


तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ 

अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं 


तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर 

तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं 


बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ 

ये मुल्क देखने लाएक़ तो है हसीन नहीं 


ज़रा सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो 

तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं


- दुष्यंत कुमार