●महिलाओं में मासिक धर्म का असल कारण●
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क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चा पैदा करने में काम तो सिर्फ एक शुक्राणु आता है, तो फिर आदमी एक बार में करोड़ों स्पर्म खामखाह क्यों रिलीज करता है? इसका एक बेहद वाजिब कारण है।
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एक स्पर्म महिला के लिए “बाहरी चीज” है और बाहरी चीजों को देख शरीर की रक्षा-प्रणाली का एक ही काम होता है – उन बाहरों तत्वों का खात्मा। पर बाहरी चीजें करोड़ों की संख्या में हों, तो संभावना बन जाती है कि गिरते-पड़ते उनमें से कोई तो अंडाणु तक पहुँच कर निषेचन कर पायेगा।
अर्थात – आज तक आप जो “सबसे फिट – सबसे बेहतर स्पर्म ही जीतता है” की थ्योरी सुनते आये हैं, वो एक बोगस बात है। असलियत बस “प्रोबबिलिटी” की है, यानी जिसका दांव लगा, वो जीता!
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मानव शिशुओं की प्लेसेंटा सृष्टि ने कुछ ऐसी विकसित की है कि वह (प्लेसेंटा) गर्भाशय की नली को पार कर सीधे माँ के ब्लड-सिस्टम को हाईजैक कर लेती है। एक बार गर्भ धारण हो गया, फिर शिशु अपनी मनमर्जी से माँ से पोषक पदार्थ खींचता है और माँ का अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। अब चूँकि शिशु टेक्निकली एक “बाहरी चीज” है, इसलिए उसे नुकसान न पहुँचे, इसलिए प्रेगनेंसी के दौरान माँ के शरीर की रक्षा-प्रणाली एक तरह से शट-डाउन हो जाती है और माँ 9 महीने तक विभिन्न शारीरिक-मानसिक मनोविकारों को सहते हुए शिशु को अपने खून से सींचती रहती है।
प्लेसेंटा के शरीर से सीधे संपर्क के कारण ऐसी प्रेगनेंसी टर्मिनेट हो जाना भी एक चुनौती है और रक्तस्त्राव में जान भी जा सकती है। इसलिए यह बेहद आवश्यक हो जाता है कि अगर प्रेगनेंसी हो, तो स्वस्थ भ्रूण की हो, अथवा न हो।
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अब आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अस्तित्व में आने वाले 10 में से 8 भ्रूण डिफेक्टिव होते हैं। अर्थात निषेचन के बाद अस्तित्व में आई पहली कोशिका से अन्य कोशिकाएं बनने के दौरान वे अपने क्रोमोसोम (डीएनए अणु) की ठीक से नकल नहीं कर पाते, और इस तरह वे एक तरह से विकृत डीएनए वाले भ्रूण बन जाते हैं। विकृत भ्रूण से प्रेगनेंसी न हो, इसलिए महिला के गर्भाशय पर पायी जाने वाली एक परत (एंड्रोमिटियम) में कुछ ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो प्लेसेंटा बनने से पूर्व भ्रूण के स्वास्थ्य का जायजा लेती है। अगर गड़बड़ दिखी, तो एंड्रोमिटियम उत्सर्जित होकर बाहर निकल जाती है – विकृत भ्रूण को अपने साथ लेकर! इसी घटना को हिंदी में “मासिक धर्म” और अंग्रेजी में “मेंसुरेशन” कहते है।
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ये भी अचरज की बात है कि प्रकृति में सिर्फ मनुष्य, चिम्पेंजी और छछुंदर-चमगादड़ की एकाध प्रजातियाँ हैं, जिनके मासिक धर्म के दौरान रक्तस्राव होता है। बाकी सभी मैमल्स जीव एंड्रोमिटियम को शरीर से निकालने की बजाय अवशोषित करके रीसायकल कर लेते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दूसरे जानवर अपनी इच्छा से जब चाहें, प्रेगनेंसी को अबो्र्ट कर सकते हैं। इंसानों में यह सुविधा नहीं है इसलिए कमजोर भ्रूण की भनक लगते ही एंड्रोमिटियम का शरीर से बाहर निकल जाना ही ज्यादा सुरक्षित है।
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कई लोग कह सकते हैं कि जब प्रेग्नेंसी न हो, तो भी हर महीने एंड्रोमिटियम मासिक धर्म के रूप में बाहर निकले, फिर हर महीने नयी बने, इसमें क्या तुक है? भाई, एवोल्यूशन को तुकबंदी से कुछ लेना-देना नहीं है। चूँकि गर्भधारण का काल सीमित है, इसलिए एंड्रोमिटियम को हमेशा बनाये रखने की बजाय रिलीज करके दोबारा बनाने का सौदा “ऊर्जा खर्च करने के मानक पर” एवोल्यूशन को ज्यादा मुफीद लगा। जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ – एवोल्यूशन एक बेहद मूर्खतापूर्ण प्रक्रिया है। इसे मासिक के दौरान होने वाली समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं। ये तो बस “कम से कम ऊर्जा खर्च कर” कामचलाऊ चीजें उत्पन्न करना जानता है। 100% असरदार ये कभी नहीं होता नहीं तो इतनी मशक्कत के बाद भी दुनिया में तमाम डिसऑर्डर से पीड़ित शिशु क्यूँ ही जन्म लेते।
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खैर, आज से बमुश्किल कुछ दशक से पहले पूरी कायनात में किसी एक बंदे तक को अंदाजा नहीं था कि मासिक आखिर होता ही क्यों है? श्योर, प्राचीन लोगों को यह तो पता था कि मासिक के बाद प्रयास करने से संतान होती है, पर इसके लिए रक्त निकलने की बाध्यता क्यों, इसका गुमान एक भी व्यक्ति को न था। इसलिए आप कोई भी सभ्यता, कोई भी पंथ उठा कर देख लें – किसी ने इसका सम्बन्ध किसी प्राचीन शाप से जोड़ा, किसी ने आसुरी शक्तियों से, किसी ने जादू-टोने तो किसी ने इसे औरतों पर दैवीय प्रकोपों की संज्ञा दी।
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क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हजारों साल जंगल में खूंखार जानवरों के बीच रहते हुए रक्तस्राव होना साक्षात मृत्युदूतों को आमंत्रण देने सरीखा होता था? कितना जोखिम भरा कृत्य है यह...
सिर्फ इसलिए... ताकि जितना हो सके, श्रेष्ठ शिशु ही जन्म लें – ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था के लिए एक स्त्री हर महीने शारीरिक पीड़ा सहती है, अपना सुख-चैन त्यागती है, प्रेगनेंसी के दौरान अपना जीवन दांव पर लगाती है, हर माह मासिक धर्म से गुजरती है। उसी मासिक धर्म को मनुष्यों का एक बड़ा वर्ग सहस्त्राब्दियों तक “देवताओं का शाप” होने की संज्ञा देता रहा।
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क्या इस दुनिया में वाकई में कुछ शापित है, सिवाय किसी इंसान की दुष्ट बुद्धि के?
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-विजय सिंह ठकुराय
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