"पुष्प की अभिलाषा"
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी माला
में बिंध प्यारी को ललचाऊं।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं,
चाह नहीं देवों के
सिर पर चढूं भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक। .. ( 'युगचरंज' से )
"जवानी"
प्राण अंतर में लिए पागल
जवानी,
कौन कहता है कि तू
विधवा हुई, खो आज पानी?
स्वान के सिर हो,।चरण तो चाटता है!
भौंक ले क्या सिंह , को वह डाटता है?
रोटियां खाई कि साहस खा चुका है,
प्राणी हो, पर प्राण से, वह जा चुका है।
तुम न खेलो ग्राम सिंहों
में भवानी!
विश्व की अभिमान मस्तानी
जवानी!
विश्व है असि का? नहीं संकल्प का है!
हर प्रलय का कोण, काया कल्प।का है,
फूल गिरते शूल, शिर ऊंचा लिए हैं,
रसों के अभिमान को। नीरस किए हैं!
खून हो जाए न तेरा देख, पानी!
मरण का त्यौहार, जीवन की जवानी। .... ('हिमकिरीटिनी' से)
कवि: माखन लाल चतुर्वेदी
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