इतिहास की इन दो घटनाओं के बीच 80 साल और 1700 किलोमीटर का फासला है. इन दोनों घटनाओं में अद्भुत समानताएं हैं. बात हो रही है भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी, 1818 को और सारागढ़ी में 12 सितंबर 1897 में हुए युद्धों की. दोनों मानवीय साहस और वीरता की कहानी हैं.
लेकिन दोनों घटनाओं को लेकर इतिहासकारों, टेक्स्ट बुक बनाने वालों, गीत लिखने वालों, फिल्मकारों ने बिल्कुल अलग तरह का व्यवहार किया है. इस लेख को अभी लिखने की वजह ये है कि सारागढ़ी की घटना पर हाल में अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म केसरी आई है और उसने 100 करोड़ रुपए से ज़्यादा का बिज़नेस कर लिया है.
आगे बढ़ने से पहले दोनों घटनाओं के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं. चूंकि इतिहास लेखन एक निरपेक्ष, पक्षपातरहित कार्य नहीं है, इसलिए दोनों घटनाओं के बारे में अलग अलग तरह के तथ्य मौजूद हैं. इतिहास का लिखा जाना अक्सर इस बात से भी तय होता है कि इतिहास लिख कौन रहा है और उसे जिस समय लिखा जा रहा है, उस समय प्रभुत्व किसका है. इसलिए भारत और पाकिस्तान के टेक्स्ट बुक स्वतंत्रता आंदोलन की बिल्कुल उन्हीं घटनाओं को अलग अलग तरीके से पढ़ाते हैं.
हम कोशिश करते हैं कि भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी की घटनाओं के बारे में उतना ही लिखें, जिस पर आम तौर पर तमाम पक्षों में सहमति है.
एक, कोरेगांव पुणे के पास भीमा नदी के किनारे का एक गांव है. यहां 1 जनवरी, 1818 को पेशवा और अंग्रेजों की फौजों के बीच एक युद्ध हुआ. इसका अंग्रेजों ने जो लेखा-जोखा लिखा है उसके हिसाब से ब्रिटिश फौज में 900 और पेशवा की फौज में 28,000 सैनिक थे. ब्रिटिश फौज में बड़ी संख्या में महार सैनिक थे, जिन्हें पेशवा अछूत मानते थे और इसलिए पेशवा की सेना में महार नहीं थे. ये युद्ध शाम होने से पहले खत्म हो गया. अंग्रेजों ने इस युद्ध को सबसे महत्वपूर्ण युद्धों में शामिल किया और उन्होंने ये बात यहां बनाए गए विजय स्तंभ पर भी लिख दी थी. विजय स्तंभ पर युद्ध में मारे गए सैनिकों के नाम लिखे हैं. इस युद्ध के साथ ही अंग्रेजों के राज को पेशवा से मिल रही चुनौती का अंत हो गया और पूरे महाद्वीप पर अंग्रेजों के शासन का रास्ता खुल गया.
दो, सारागढ़ी वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा की पहाड़ियों पर है, जहां अंग्रेजों की एक संचार चौकी हुआ करती थी, जिसके ज़रिए वे दो फौजी कैंप के बीच में मैसेज का लेन-देन करते थे. यहां 12 सिंतबर, 1897 में स्थानीय पश्तून बागियों ने हजारों की संख्या में हमला कर दिया. अंग्रेजों की इस चौकी पर सिख रेजिमेंट की 36वीं बटालियन के 21 सैनिक तैनात थे. ये युद्ध सुबह शुरू हुआ और शाम होने से पहले खत्म हो गया. सभी सिख सैनिक इस युद्ध में मारे गये, लेकिन उन्होंने पश्तून बागियों को काफी देर तक रोके रखा, जिसकी वजह से वे बाकी दो बड़े ब्रिटिश किलों पर हमला नहीं कर पाए. सारागढ़ी को बाद में ब्रिटिश फौज ने पश्तून बागियों को खदेड़कर छीन लिया.
सिख और महार सैनिकों ने इन युद्धों में अपने साहस की दास्तान लिख दी. सिख और महार दोनों ही ब्रिटिश फौज के सैनिक थे और ब्रिटिश सैन्य इतिहासकारों ने इस शौर्य की जमकर तारीफ की. भीमा कोरेगांव में ब्रिटिश सेना द्वारा बनाए गए विजय स्तंभ में इसे पूर्व दिशा (ब्रिटिन से पूर्व) की सबसे गौरवशाली सैन्य विजय के तौर पर दर्शाया गया है. वहीं ब्रिटेन की सरकार ने सारागढ़ी में मारे गए सभी 21 सिख सैनिकों को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाज़ा, जो ब्रिटिश फौज के भारतीय सैनिकों को दिया जाना वाला सबसे बड़ा सम्मान था. अंग्रेजों के लिए भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी दोनों ही गौरव का क्षण था. दोनों ही जीत उन्होंने भारतीय लोगों की मदद से हासिल की.
ये सच है कि न तो सिख और न ही महार भारत की ओर से लड़ रहे थे. भारतीय गणराज्य की इस समय तक सिर्फ कल्पना में ही मौजूद था. भारत के लिए वहां कोई नहीं लड़ रहा था. इसलिए किसी को इस युद्ध में हिस्सा लेने के लिए ‘देश का दुश्मन’ नहीं कहा जा सकता. युद्ध में दूसरी तरफ मौजूद पेशवा और पश्तून भी कोई आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे. वे अपने स्थानीय वर्चस्व की लडाई लड़ रहे थे और इससे पहले और बाद में भी वे कई बार अंग्रेजों से हाथ मिला चुके थे.
मिसाल के तौर पर, चौथे ब्रिटिश-मैसूर युद्ध में पेशवा और निजाम ने अंग्रेज़ों का साथ दिया, सैन्य अभियान में ब्रिटिश पक्ष की ओर से हिस्सा लिया और इस तरह टीपू सुल्तान के साम्राज्य का खात्मा करने में हिस्सेदार बने. टीपू वह आखिरी शासक था, जिसकी वजह से अंग्रेजों को भारतीय उपमहाद्वीप में अपना शासन स्थिर नहीं लग रहा था. टीपू सुल्तान उस युद्ध में मारा गया.
तो उस समय के ब्यौरों से यही पता चलता है कि सारागढ़ी और भीमा कोरेगांव में एकमात्र गौरवशाली बात सिख और महार सैनिकों का निजी और सामूहिक शौर्य था और उसका देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं था.
लेकिन भारत में सरकार, इतिहासकारों, पुस्तक लेखकों और फिल्मकारों ने दोनों घटनाओं के साथ बिल्कुल अलग तरह का बर्ताव किया.
सारागढ़ी को लेकर एक फिल्म तो बन ही चुकी है, कुछ और फिल्में भी कतार में हैं. इसे लेकर कम से कम आठ किताबें लिखी जा चुकी हैं. पंजाब सरकार ने 12 सितंबर को सारागढ़ी डे मनाने का फैसला किया और इस दिन सार्वजनिक छुट्टी होती है. भारतीय फौज की सिख रेजिमेंट की सभी बटालियन इस दिन को बैटल ऑनर्स डे के तौर पर मनाती हैं. भारत में सारागढ़ी युद्ध की याद में दो गुरुद्वारे हैं, जहां हर साल इस दिन को याद किया जाता है.
लेकिन इतिहास पर सारागढ़ी से कहीं ज़्यादा असर डालने वाले और साहस की उस जैसी ही मिसाल कायम करने वाले भीमा-कोरेगांव युद्ध के बारे में ऐसा कुछ नहीं है. इस पर कोई ढंग की किताब आज भी उपलब्ध नहीं है. इस पर बॉलीवुड कोई फिल्म नहीं बना रहा है. दो स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं ने इस पर फिल्म बनाने की घोषणा की है. लेकिन स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के लिए इतने बड़े प्रोजेक्ट पर काम करना आसान नहीं है. भीमा कोरेगांव दिवस जैसा कोई कार्यक्रम सरकार नहीं करती.
भीमा कोरेगांव का जश्न सिर्फ दलित और कुछ पिछड़े मनाते हैं. लेकिन पिछले साल जब लोग भीमा-कोरेगांव दिवस मनाने जुटे तो उन पर हमला कर दिया गया और सरकार हमला करने वालों को पकड़ने की जगह दलितों को ही पकड़ने लगी. भीमा-कोरेगांव का जश्न मनाने वालों से ये पूछा जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वालों को महान क्यों बताया जा रहा है. लेकिन यही सवाल सारागढ़ी के मामले में नहीं पूछा जाता.
एक, सारागढ़ी में ब्रिटिश आर्मी के सिख सैनिकों के मुकाबले में पश्तून विद्रोही थे, जिनका धर्म इस्लाम था. सिखों के मुकाबले इस्लाम एक ऐसा वृतांत या नैरिटिव है, जो भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों को पसंद है. बल्कि अभी जो सरकार देश में है, उसके लिए ये बहुत शानदार बात है कि सारागढ़ी की लड़ाई में एक पक्ष मुसलमान था और वीरता गैर-मुसलमानों के हिस्से आई. इसके बाद बाकी बातें निरर्थक हो जाती हैं कि सिख किसके लिए लड़ रहे थे. सारागढ़ी पर बनी फिल्म का नाम केशरी रखने के पीछे यही इतिहास दृष्टि है.
दो, भीमा कोरेगांव के लोक विमर्श में कहानी ये बनी कि चितपावन ब्राह्मण पेशवा की सेना को हराने वाले अछूत महार थे. पेशवा महारों को अपनी फौज में तो ले नहीं सकता था. इसलिए महारों के पास फौज में जाने के नाम पर एकमात्र विकल्प अंग्रेज ही थे. अंग्रेज़ों को छूत-अछूत का पता नहीं था, तो ब्रिटिश फौज में महारों को इंसानों वाला सम्मान भी मिल गया. दलित भीमा कोरेगांव के युद्ध का जश्न इसलिए मनाते हैं क्योंकि उनके लिए ये मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों को क्लेम करने का संघर्ष था.
इसी वजह से 1 जनवरी, 1927 को डॉ. बी.आर. आंबेडकर भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ पर पहुंचे थे. लेकिन अछूत बनाम चितपावन पेशवा का ये संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकारों को पसंद नहीं है. यहां तक कि वामपंथी और लिबरल इतिहासकारों को भी ये लड़ाई नापसंद है.