Wednesday, February 22, 2023

बना बावला सूंघ रहा हूं, मैं अपने पुरखों की माटी

 नदी किनारे, सागर तीरे,

पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी।

बना बावला सूंघ रहा हूं,

मैं अपने पुरखों की माटी।।



सिंधु, जहां सैंधव टापों के,

गहरे बहुत निशान बने थे।

हाय खुरों से कौन कटा था,

बाबा मेरे किसान बने थे।।


ग्रीक बसाया, मिस्र बसाया,

दिया मर्तबा इटली को।

मगध बसा था लौह के ऊपर,

मरे पुरनिया खानों में।।


कहां हड़प्पा, कहां सवाना,

कहां वोल्गा, मिसीसिपी।

मरी टेम्स में डूब औरतें,

भूखी, प्यासी, लदी-फदी।।


वहां कापुआ के महलों के,

नीचे खून गुलामों के।

बहती है एक धार लहू की,

अरबी तेल खदानों में।।


कज्जाकों की बहुत लड़कियां,

भाग गयी मंगोलों पर।

डूबा चाइना यांगटिसी में,

लटका हुआ दिवालों से।।


पत्थर ढोता रहा पीठ पर,

तिब्बत दलाई लामा का।

वियतनाम में रेड इंडियन,

बम बंधवाएं पेटों पे।।


विश्वपयुद्ध आस्ट्रिया का कुत्ता,

जाकर मरा सर्बिया में।

याद है बसना उन सर्बों का

डेन्यूब नदी के तीरे पर।।


रही रौंदती रोमन फौजें

सदियों जिनके सीनों को।

डूबी आबादी शहंशाह के एक

ताज के मोती में।।


किस्से कहती रही पुरखिनें,

अनुपम राजकुमारी की।

धंसी लश्क रें, गाएं, भैंसें,

भेड़ बकरियां दलदल में।।


कौन लिखेगा इब्नबतूता

या फिरदौसी गजलों में।

खून न सूखा कशाघात का,

घाव न पूजा कोरों का।।


अरे वाह रे ब्यूसीफेलस,

चेतक बेदुल घोड़ो का।

जुल्म न होता, जलन न होती, 

जोत न जगती, क्रांति न होती।

बिना क्रांति के खुले खजाना,

कहीं कभी भी शांति न होती।


©रमाशंकर यादव 'विद्रोही' | कॉमरेड विद्रोही




Saturday, February 11, 2023

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

 



तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं 

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं 


मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ 

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं 


तिरी ज़बान है झूटी जम्हूरियत की तरह 

तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं 


तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ 

अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं 


तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर 

तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं 


बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ 

ये मुल्क देखने लाएक़ तो है हसीन नहीं 


ज़रा सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो 

तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं


- दुष्यंत कुमार