नदी किनारे, सागर तीरे,
पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी।
बना बावला सूंघ रहा हूं,
मैं अपने पुरखों की माटी।।
सिंधु, जहां सैंधव टापों के,
गहरे बहुत निशान बने थे।
हाय खुरों से कौन कटा था,
बाबा मेरे किसान बने थे।।
ग्रीक बसाया, मिस्र बसाया,
दिया मर्तबा इटली को।
मगध बसा था लौह के ऊपर,
मरे पुरनिया खानों में।।
कहां हड़प्पा, कहां सवाना,
कहां वोल्गा, मिसीसिपी।
मरी टेम्स में डूब औरतें,
भूखी, प्यासी, लदी-फदी।।
वहां कापुआ के महलों के,
नीचे खून गुलामों के।
बहती है एक धार लहू की,
अरबी तेल खदानों में।।
कज्जाकों की बहुत लड़कियां,
भाग गयी मंगोलों पर।
डूबा चाइना यांगटिसी में,
लटका हुआ दिवालों से।।
पत्थर ढोता रहा पीठ पर,
तिब्बत दलाई लामा का।
वियतनाम में रेड इंडियन,
बम बंधवाएं पेटों पे।।
विश्वपयुद्ध आस्ट्रिया का कुत्ता,
जाकर मरा सर्बिया में।
याद है बसना उन सर्बों का
डेन्यूब नदी के तीरे पर।।
रही रौंदती रोमन फौजें
सदियों जिनके सीनों को।
डूबी आबादी शहंशाह के एक
ताज के मोती में।।
किस्से कहती रही पुरखिनें,
अनुपम राजकुमारी की।
धंसी लश्क रें, गाएं, भैंसें,
भेड़ बकरियां दलदल में।।
कौन लिखेगा इब्नबतूता
या फिरदौसी गजलों में।
खून न सूखा कशाघात का,
घाव न पूजा कोरों का।।
अरे वाह रे ब्यूसीफेलस,
चेतक बेदुल घोड़ो का।
जुल्म न होता, जलन न होती,
जोत न जगती, क्रांति न होती।
बिना क्रांति के खुले खजाना,
कहीं कभी भी शांति न होती।
©रमाशंकर यादव 'विद्रोही' | कॉमरेड विद्रोही