Friday, January 27, 2023

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई (Socialism Babua, came slowly)

 समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई


हाथी से आई, घोड़ा से आई

अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...



नोटवा से आई, बोटवा से आई

बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...


गाँधी से आई, आँधी से आई

टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...


काँगरेस से आई, जनता से आई

झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...


डालर से आई, रूबल से आई

देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...


वादा से आई, लबादा से आई

जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...


लाठी से आई, गोली से आई

लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...


महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई

केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...


छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन

बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...


परसों ले आई, बरसों ले आई

हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...


धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई

अँखियन पर परदा लगाई


समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई


------   गोरख पांडेय


Tuesday, January 24, 2023

परिवार क्यों जरूरी है (Why is important family)

 एक पार्क में दो बुजुर्ग बातें कर रहे थे....


पहला :- मेरी एक पोती है, शादी के लायक है... BA किया है, नौकरी करती है, कद - 5"2 इंच है.. सुंदर है

कोई लड़का नजर में हो तो बताइएगा।

दूसरा :- आपकी पोती को किस तरह का परिवार चाहिए...??

पहला :- कुछ खास नहीं.. बस लड़का ME /M.TECH किया हो, अपना घर हो, कार हो, घर में AC हो, अपना बाग बगीचा हो, अच्छा job, अच्छी सैलरी, कोई लाख रू. तक हो।

दूसरा :- और कुछ...

पहला :- हाँ सबसे जरूरी बात.. अकेला होना चाहिए..

मां-बाप,भाई-बहन नहीं होने चाहिए..

वो क्या है लड़ाई-झगड़े होते हैं।

दूसरे बुजुर्ग की आँखें भर आई फिर आँसू पोछते हुए बोला - मेरे एक दोस्त का पोता है उसके भाई-बहन नहीं हैं, मां बाप एक दुर्घटना में चल बसे, अच्छी नौकरी है, डेढ़ लाख सैलरी है, गाड़ी है बंगला है, नौकर-चाकर है।

पहला :- तो करवाओ ना रिश्ता पक्का।

दूसरा :- मगर उस लड़के की भी यही शर्त है कि लडकी के भी मां-बाप,भाई-बहन या कोई रिश्तेदार न हों।

कहते-कहते उनका गला भर आया..

फिर बोले :- अगर आपका परिवार आत्महत्या कर ले तो बात बन सकती है.. आपकी पोती की शादी उससे हो जाएगी और वो बहुत सुखी रहेगी।

पहला :- ये क्या बकवास है, हमारा परिवार क्यों करे आत्महत्या.. कल को उसकी खुशियों में, दुःख में कौन उसके साथ व उसके पास होगा।

दूसरा :- वाह मेरे दोस्त, खुद का परिवार, परिवार है और दूसरे का कुछ नहीं... मेरे दोस्त अपने बच्चों को परिवार का महत्व समझाओ, घर के बड़े, घर के छोटे सभी अपनों के लिए जरूरी होते हैं... वरना इंसान खुशियों का और गम का महत्व ही भूल जाएगा, जिंदगी नीरस बन जाएगी।

पहले वाले बुजुर्ग बेहद शर्मिंदगी के कारण 

कुछ नहीं बोल पाए...

दोस्तों परिवार है तो जीवन में हर खुशी, 

खुशी लगती है, अगर परिवार नहीं तो 

किससे अपनी खुशियाँ और गम बांटोगे.......


(यहां परिवार का संबंध खुद के परिवार के साथ-साथ पूरे इंसानों को आपस में मिलकर एक परिवार की तरह रहने से है)


Monday, January 23, 2023

धर्म क्या है (What is Religion)

 

धर्म क्या है

क्लास में आते ही नये टीचर ने बच्चों को अपना परिचय दिया. बातों ही बातों में उसने जान लिया कि लड़कियों की इस क्लास में सबसे तेज और सबसे आगे कौन सी लड़की है? उसने खामोश सी बैठी उस लड़की से पूछा-

बेटा, आपका नाम क्या है?

लड़की खड़ी हुई और बोली;

जी सर; मेरा नाम है जूही

टीचर ने फिर पूछा; पूरा नाम बताओ बेटा।

लड़की ने फिर कहा; 

जी सर मेरा पूरा नाम जूही ही है।

टीचर ने सवाल बदल दिया। अच्छा, तुम्हारे पापा का नाम बताओ।

लड़की ने जवाब दिया; 

जी सर; मेरे पापा का नाम है शमशेर

टीचर ने फिर पूछा; अपने पापा का पूरा नाम बताओ।

लड़की ने जवाब दिया,

मेरे पापा का पूरा नाम शमशेर ही है सर जी।

अब टीचर कुछ सोचकर बोले;

अच्छा अपनी माँ का पूरा नाम बताओ।

लड़की ने जवाब दिया; 

सर जी; मेरी माँ का पूरा नाम निशा है।

टीचर के पसीने छूट चुके थे क्योंकि अब तक वो उस लड़की की फैमिली के पूरे बायोडाटा में जो एक चीज ढूंढने की कोशिश कर रहा था, वो उसे नहीं मिली थी।

उसने आखिरी पैंतरा आजमाया और पूछा, अच्छा तुम कितने भाई बहन हो?

टीचर ने सोचा कि जो चीज वो ढूँढ रहा है। शायद इसके भाई बहनों के नाम में वो क्लू मिल जाये!

लड़की ने टीचर के इस सवाल का भी बड़ी मासूमियत से जवाब देते हुये बोली, सर जी मैं अकेली हूँ। मेरे कोई भाई बहन नहीं है।

अब टीचरने सीधा और निर्णायक सवाल पूछा; बेटे, तुम्हारा धर्म और जाति क्या है?

लड़की ने इस सीधे सवाल का जवाब भी सीधा-सीधा दिया

बोली-

सर जी मैं एक विद्यार्थी हूँ यही मेरी जाति है और ज्ञान प्राप्त करना मेरा धर्म है। मैं जानती हूँ कि अब आप मेरे पेरेंट्स की जाति और धर्म पूछोगे तो मैं आपको बता दूँ कि मेरे पापा का धर्म है मुझे पढ़ाना और मेरी मम्मी की जरूरतों को पूरा करना तथा मेरी मम्मी का धर्म है, मेरी देखभाल करना और मेरे पापा की जरूरतों को पूरा करना।

लड़की का जवाब सुनकर टीचर के होश उड़ गये। उसने टेबल पर रखे पानी के गिलास की ओर देखा, लेकिन उसे उठाकर पानी भी भूल गया। तभी लड़की की आवाज आयी, इस बार फिर उसके कानों में किसी धमाके की तरह गूँजी।

सर, मैं विज्ञान पढती हूँ और एक साइंटिस्ट बनना चाहती हूँ।

जब अपनी पढ़ाई पूरी कर लूँगी और अपने माँ-बाप के सपनों को पूरा कर लूँगी तब मैं फुरसत से सभी धर्मों का अध्ययन करूंगी और जो धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरेगा, उसे मैं अपना लूँगी। लेकिन अगर किसी धर्म ग्रंथ में एक भी बात विज्ञान के विरुद्ध मिली त़ो मैं उस पवित्र किताब को अपवित्र समझूँगी क्योंकि विज्ञान कहता है एक गिलास दूध में अगर एक बूंद भी केरोसिन मिला हो, तो पूरा का पूरा दूध ही बेकार हो जाता है।

लड़की की बात खत्म होते ही पूरा क्लास तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। तालियों की गूंज टीचर के कानों में गोलियों की गड़गड़ाहट की तरह सुनाई दे रही थी। उसने आँंखों पर लगे धर्म और जाति के मोटे चश्में को कुछ देर के लिए उतार दिया था।

थोड़ी हिम्मत जुटाकर लड़की से बिना नजर मिलाये टीचर बोला- बेटा Proud of you.




Saturday, January 21, 2023

हथनी और कुतिया की कहानी

 एक ही समय में एक हथनी और एक कुतिया गर्भवती हो गईं। तीन महीने बाद, कुतिया ने छह पिल्लों को जन्म दिया। छह महीने बाद, कुतिया फिर से गर्भवती हुई और नौ महीने बाद उसने एक और दर्जन पिल्लों को जन्म दिया। पैटर्न जारी रहा। 



अठारहवें महीने में कुतिया हथनी के पास पहुंची और सवाल किया, "क्या तुम्हें यकीन है कि तुम गर्भवती हो? हम एक ही तारीख को गर्भवती हुई। मैंने एक दर्जन पिल्लों को तीन बार जन्म दिया है और वे अब बड़े कुत्ते बन गए हैं, फिर भी तुम अभी भी गर्भवती हो। क्या चल रहा है?" 

हथिनी ने उत्तर दिया, "कुछ बात है जो मैं चाहता हूं कि आप समझें। मैं जो ले जा रहा हूं वह एक पिल्ला नहीं बल्कि एक हाथी है। मैं केवल दो साल में एक को जन्म देती हूं। जब मेरा बच्चा जमीन से टकराता है, तो पृथ्वी उसे महसूस करती है। जब मेरा बच्चा सड़क पार करता है, मनुष्य रुकते हैं और प्रशंसा में देखते हैं, जो मैं ले जाता हूं वह ध्यान आकर्षित करता है। इसलिए मैं जो ले जा रहा हूं वह शक्तिशाली और महान है।

जब आप देखते हैं कि दूसरों को उनके संघर्षों के उत्तर रिकॉर्ड समय में मिलते हैं, तो विश्वास मत खोइए। दूसरों की उपलब्धि से ईर्ष्या न करें। अगर आपको अपने संघर्षों का परिणाम नहीं मिला है, तो निराश न हों। 

अपने आप से कहो "मेरा समय आ रहा है, और जब यह पृथ्वी की सतह पर आ जाएगा, तो लोग प्रशंसा में झुकेंगे।" अपनी यात्रा की तुलना किसी और से न करें, आजीवन संघर्ष करते रहें और संघर्ष करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करें क्योंकि संघर्ष जितना कठिन और देर तक होता है उसका परिणाम उतना की टिकाऊ और मजबूत होता है 🙏🙏

(संघर्ष ही जीवन है)

Sunday, January 15, 2023

स्पर्म की रेस/दौड़ (sperm race)

 एक तंदुरुस्त मर्द के किसी औरत के साथ सेक्स करने के बाद जो वीर्य निकलता है उसमें 40 मिलियन तक स्पर्म मौजूद होते हैं, आसान शब्दों में कहें तो अगर सबको सही जगह (गर्भाशय) मिल जाए तो 40 मिलियन बच्चे पैदा हो जायें।



जबकि ये सारे के सारे स्पर्म माँ की बच्चेदानी (गर्भाशय) की तरफ पागलों की तरह भागते हैं और इस दौड़ में सिर्फ 300 से 500 तक स्पर्म ही बच जाते हैं और बाकी रास्ते में ही थकन और हारकर मर जाते हैं।

ये 300 से 500 वही स्पर्म हैं जो गर्भाशय तक पहुंचने में कामयाब हो पाते हैं।

इनमें से भी सिर्फ एक बहुत मजबूत स्पर्म होता है जो गर्भाशय में पहुँचकर फर्टिलाइज होता है।

क्या आप जानते हैं वो खुशनसीब, मजबूत और जीतने वाला स्पर्म कौन है? वो खुशनसीब स्पर्म आप, मैं, या हम सब हैं!

आप सोच भी नहीं सकते कि जब आप पहली बार भागे थे तब आंख, हाथ-पैर, चेहरा कुछ भी नहीं था फिर भी आप जीत गये

जब आप भागे तब आपके पास सर्टिफिकेट्स नहीं थे, आपके पास दिमाग़ नहीं था, लेकिन आप फिर भी जीत गये।

बहुत से बच्चे माँ के पेट में ही खो गए लेकिन आप मौजूद रहे और आपने अपने 9 महीने पूरे किए।

और आज..................

आज आप घबराये हैं, जब कुछ होता है तो आप मायूस हो जाते हैं मगर क्यूँ?

आपको क्यूँ लगता है कि आप हार गए हैं? आपने भरोसा क्यूँ खो दिया है? अब तो आपके पास दोस्त हैं, बहन भाई, सर्टिफिकेट्स सब कुछ है फिर आप मायूस क्यूँ हो गए?

आप सबसे पहले जीते, आखिर में जीते, बीच में जीत जाते हैं.(प्रकृति )पर यकीन और सच्ची लगन से मकसद को हासिल करने के लिए पूरी जद्दोजहद करें, वो आपको हारने नहीं देगी।

जैसे मिलियन स्पर्म में से आपको जीतने का मौका दिया वैसे ही वो अब भी आपको कामयाब जरूर बनाएगी!


Drx Shiwangee Nigam


Sunday, January 1, 2023

भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी युद्ध (Battle of Bhima Koregaon and Saragarhi)

 इतिहास की इन दो घटनाओं के बीच 80 साल और 1700 किलोमीटर का फासला है. इन दोनों घटनाओं में अद्भुत समानताएं हैं. बात हो रही है भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी, 1818 को और सारागढ़ी में 12 सितंबर 1897 में हुए युद्धों की. दोनों मानवीय साहस और वीरता की कहानी हैं.

लेकिन दोनों घटनाओं को लेकर इतिहासकारों, टेक्स्ट बुक बनाने वालों, गीत लिखने वालों, फिल्मकारों ने बिल्कुल अलग तरह का व्यवहार किया है. इस लेख को अभी लिखने की वजह ये है कि सारागढ़ी की घटना पर हाल में अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म केसरी आई है और उसने 100 करोड़ रुपए से ज़्यादा का बिज़नेस कर लिया है.


आगे बढ़ने से पहले दोनों घटनाओं के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं. चूंकि इतिहास लेखन एक निरपेक्ष, पक्षपातरहित कार्य नहीं है, इसलिए दोनों घटनाओं के बारे में अलग अलग तरह के तथ्य मौजूद हैं. इतिहास का लिखा जाना अक्सर इस बात से भी तय होता है कि इतिहास लिख कौन रहा है और उसे जिस समय लिखा जा रहा है, उस समय प्रभुत्व किसका है. इसलिए भारत और पाकिस्तान के टेक्स्ट बुक स्वतंत्रता आंदोलन की बिल्कुल उन्हीं घटनाओं को अलग अलग तरीके से पढ़ाते हैं.

हम कोशिश करते हैं कि भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी की घटनाओं के बारे में उतना ही लिखें, जिस पर आम तौर पर तमाम पक्षों में सहमति है.


एक, कोरेगांव पुणे के पास भीमा नदी के किनारे का एक गांव है. यहां 1 जनवरी, 1818 को पेशवा और अंग्रेजों की फौजों के बीच एक युद्ध हुआ. इसका अंग्रेजों ने जो लेखा-जोखा लिखा है उसके हिसाब से ब्रिटिश फौज में 900 और पेशवा की फौज में 28,000 सैनिक थे. ब्रिटिश फौज में बड़ी संख्या में महार सैनिक थे, जिन्हें पेशवा अछूत मानते थे और इसलिए पेशवा की सेना में महार नहीं थे. ये युद्ध शाम होने से पहले खत्म हो गया. अंग्रेजों ने इस युद्ध को सबसे महत्वपूर्ण युद्धों में शामिल किया और उन्होंने ये बात यहां बनाए गए विजय स्तंभ पर भी लिख दी थी. विजय स्तंभ पर युद्ध में मारे गए सैनिकों के नाम लिखे हैं. इस युद्ध के साथ ही अंग्रेजों के राज को पेशवा से मिल रही चुनौती का अंत हो गया और पूरे महाद्वीप पर अंग्रेजों के शासन का रास्ता खुल गया.


दो, सारागढ़ी वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा की पहाड़ियों पर है, जहां अंग्रेजों की एक संचार चौकी हुआ करती थी, जिसके ज़रिए वे दो फौजी कैंप के बीच में मैसेज का लेन-देन करते थे. यहां 12 सिंतबर, 1897 में स्थानीय पश्तून बागियों ने हजारों की संख्या में हमला कर दिया. अंग्रेजों की इस चौकी पर सिख रेजिमेंट की 36वीं बटालियन के 21 सैनिक तैनात थे. ये युद्ध सुबह शुरू हुआ और शाम होने से पहले खत्म हो गया. सभी सिख सैनिक इस युद्ध में मारे गये, लेकिन उन्होंने पश्तून बागियों को काफी देर तक रोके रखा, जिसकी वजह से वे बाकी दो बड़े ब्रिटिश किलों पर हमला नहीं कर पाए. सारागढ़ी को बाद में ब्रिटिश फौज ने पश्तून बागियों को खदेड़कर छीन लिया.


सिख और महार सैनिकों ने इन युद्धों में अपने साहस की दास्तान लिख दी. सिख और महार दोनों ही ब्रिटिश फौज के सैनिक थे और ब्रिटिश सैन्य इतिहासकारों ने इस शौर्य की जमकर तारीफ की. भीमा कोरेगांव में ब्रिटिश सेना द्वारा बनाए गए विजय स्तंभ में इसे पूर्व दिशा (ब्रिटिन से पूर्व) की सबसे गौरवशाली सैन्य विजय के तौर पर दर्शाया गया है. वहीं ब्रिटेन की सरकार ने सारागढ़ी में मारे गए सभी 21 सिख सैनिकों को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाज़ा, जो ब्रिटिश फौज के भारतीय सैनिकों को दिया जाना वाला सबसे बड़ा सम्मान था. अंग्रेजों के लिए भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी दोनों ही गौरव का क्षण था. दोनों ही जीत उन्होंने भारतीय लोगों की मदद से हासिल की.

ये सच है कि न तो सिख और न ही महार भारत की ओर से लड़ रहे थे. भारतीय गणराज्य की इस समय तक सिर्फ कल्पना में ही मौजूद था. भारत के लिए वहां कोई नहीं लड़ रहा था. इसलिए किसी को इस युद्ध में हिस्सा लेने के लिए ‘देश का दुश्मन’ नहीं कहा जा सकता. युद्ध में दूसरी तरफ मौजूद पेशवा और पश्तून भी कोई आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे. वे अपने स्थानीय वर्चस्व की लडाई लड़ रहे थे और इससे पहले और बाद में भी वे कई बार अंग्रेजों से हाथ मिला चुके थे.

मिसाल के तौर पर, चौथे ब्रिटिश-मैसूर युद्ध में पेशवा और निजाम ने अंग्रेज़ों का साथ दिया, सैन्य अभियान में ब्रिटिश पक्ष की ओर से हिस्सा लिया और इस तरह टीपू सुल्तान के साम्राज्य का खात्मा करने में हिस्सेदार बने. टीपू वह आखिरी शासक था, जिसकी वजह से अंग्रेजों को भारतीय उपमहाद्वीप में अपना शासन स्थिर नहीं लग रहा था. टीपू सुल्तान उस युद्ध में मारा गया.

तो उस समय के ब्यौरों से यही पता चलता है कि सारागढ़ी और भीमा कोरेगांव में एकमात्र गौरवशाली बात सिख और महार सैनिकों का निजी और सामूहिक शौर्य था और उसका देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं था.

लेकिन भारत में सरकार, इतिहासकारों, पुस्तक लेखकों और फिल्मकारों ने दोनों घटनाओं के साथ बिल्कुल अलग तरह का बर्ताव किया.

सारागढ़ी को लेकर एक फिल्म तो बन ही चुकी है, कुछ और फिल्में भी कतार में हैं. इसे लेकर कम से कम आठ किताबें लिखी जा चुकी हैं. पंजाब सरकार ने 12 सितंबर को सारागढ़ी डे मनाने का फैसला किया और इस दिन सार्वजनिक छुट्टी होती है. भारतीय फौज की सिख रेजिमेंट की सभी बटालियन इस दिन को बैटल ऑनर्स डे के तौर पर मनाती हैं. भारत में सारागढ़ी युद्ध की याद में दो गुरुद्वारे हैं, जहां हर साल इस दिन को याद किया जाता है.

लेकिन इतिहास पर सारागढ़ी से कहीं ज़्यादा असर डालने वाले और साहस की उस जैसी ही मिसाल कायम करने वाले भीमा-कोरेगांव युद्ध के बारे में ऐसा कुछ नहीं है. इस पर कोई ढंग की किताब आज भी उपलब्ध नहीं है. इस पर बॉलीवुड कोई फिल्म नहीं बना रहा है. दो स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं ने इस पर फिल्म बनाने की घोषणा की है. लेकिन स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के लिए इतने बड़े प्रोजेक्ट पर काम करना आसान नहीं है. भीमा कोरेगांव दिवस जैसा कोई कार्यक्रम सरकार नहीं करती.

भीमा कोरेगांव का जश्न सिर्फ दलित और कुछ पिछड़े मनाते हैं. लेकिन पिछले साल जब लोग भीमा-कोरेगांव दिवस मनाने जुटे तो उन पर हमला कर दिया गया और सरकार हमला करने वालों को पकड़ने की जगह दलितों को ही पकड़ने लगी. भीमा-कोरेगांव का जश्न मनाने वालों से ये पूछा जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वालों को महान क्यों बताया जा रहा है. लेकिन यही सवाल सारागढ़ी के मामले में नहीं पूछा जाता.

एक, सारागढ़ी में ब्रिटिश आर्मी के सिख सैनिकों के मुकाबले में पश्तून विद्रोही थे, जिनका धर्म इस्लाम था. सिखों के मुकाबले इस्लाम एक ऐसा वृतांत या नैरिटिव है, जो भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों को पसंद है. बल्कि अभी जो सरकार देश में है, उसके लिए ये बहुत शानदार बात है कि सारागढ़ी की लड़ाई में एक पक्ष मुसलमान था और वीरता गैर-मुसलमानों के हिस्से आई. इसके बाद बाकी बातें निरर्थक हो जाती हैं कि सिख किसके लिए लड़ रहे थे. सारागढ़ी पर बनी फिल्म का नाम केशरी रखने के पीछे यही इतिहास दृष्टि है.

दो, भीमा कोरेगांव के लोक विमर्श में कहानी ये बनी कि चितपावन ब्राह्मण पेशवा की सेना को हराने वाले अछूत महार थे. पेशवा महारों को अपनी फौज में तो ले नहीं सकता था. इसलिए महारों के पास फौज में जाने के नाम पर एकमात्र विकल्प अंग्रेज ही थे. अंग्रेज़ों को छूत-अछूत का पता नहीं था, तो ब्रिटिश फौज में महारों को इंसानों वाला सम्मान भी मिल गया. दलित भीमा कोरेगांव के युद्ध का जश्न इसलिए मनाते हैं क्योंकि उनके लिए ये मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों को क्लेम करने का संघर्ष था.


इसी वजह से 1 जनवरी, 1927 को डॉ. बी.आर. आंबेडकर भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ पर पहुंचे थे. लेकिन अछूत बनाम चितपावन पेशवा का ये संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकारों को पसंद नहीं है. यहां तक कि वामपंथी और लिबरल इतिहासकारों को भी ये लड़ाई नापसंद है.